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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(माधुर्यखण्ड)
तीसरा अध्याय
मैथिलीरूपा गोपियों का आख्यान; चीरहरणलीला
और वरदान-प्राप्ति
श्रीनारद उवाच -
मैथिलीनां गोपिकानामाख्यानं शृणु मैथिल ।
दशाश्वमेधतीर्थस्य फलदं भक्तिवर्धनम् ॥ १ ॥
श्रीरामस्य वराज्जाताः नवनन्दगृहेषु याः ।
कमनीयं नन्दसूनुं दृष्ट्वा ता मोहमास्थिताः ॥ २ ॥
मार्गशीर्षे शुभे मासि चक्रुः कात्यायनीव्रतम् ।
उपचारैः षोडशभिः कृत्वा देवीं महीमयीम् ॥ ३ ॥
अरुणोदयवेलायां स्नाताः श्रीयमुनाजले ।
नित्यं समेता आजग्मुर्गायन्त्यो भगवद्गुणान् ॥ ४ ॥
एकदा ताः स्ववस्त्राणि तीरे न्यस्य व्रजांगनाः ।
विजर्ह्रुर्यमुनातोये कराभ्यां सिंचतीर्मिथः ॥ ५ ॥
तासां वासांसि संनीय भगवान् प्रातरागतः ।
त्वरं कदंबमारुह्य चौरवन्मौनमास्थितः ॥ ६ ॥
ता न वीक्ष्य स्ववासांसि विस्मिता गोपकन्यकाः ।
नीपस्थितं विलोक्याथ सलज्जा जहसुर्नृप ॥ ७ ॥
प्रतीच्छन्तु स्ववासांसि सर्वा आगत्य चात्र वै ।
अन्यथा न हि दास्यामि वृक्षात्कृष्ण उवाच ह ॥ ८ ॥
राजंत्यस्ताः शीतजले हसंत्यः प्राहुरानताः ॥ ९ ॥
गोप्य ऊचुः -
हे नन्दनन्दन मनोहर गोपरत्न
गोपालवंशनवहंस महार्तिहारिन् ।
श्रीश्यामसुन्दर तवोदितमद्य वाक्यं
कुर्मः कथं विवसनाः किल तेऽपि दास्यः
॥ १० ॥
गोपाङ्गनावसनमुण्नवनीतहारी
जातो व्रजेऽतिरसिकः किल निर्भयोऽसि ।
वासांसि देहि न चेन्मथथुराधिपाय
वक्ष्यामहेऽनयमतीव कृतं त्वयाऽत्र ॥
११ ॥
श्रीभगवानुवाच -
दास्यो ममैव यदि सुन्दरमन्दहासा
इच्छन्तु वैत्य किल चात्र कदंबमूले ।
नोचेत्समस्तवसनानि नयामि गेहां-
स्तस्मात्करिष्यथ ममैव वचोऽविलम्बात्
॥ १२ ॥
श्रीनारद उवाच –
तदा ता निर्गताः सर्वा जलाद्गोप्योऽतिवेपिताः
।
आनता योनिमाच्छाद्य पाणिभ्यां शीतकर्शिताः ॥ १३ ॥
कृष्णदत्तानि वासांसि ददुः सर्वा व्रजजांगनाः ।
मोहिताश्च स्थितास्तत्र कृष्णे लज्जायितेक्षणाः ॥ १४ ॥
ज्ञात्वा तासामभिप्रायं परमप्रेमलक्षणम् ।
आह मन्दस्मितः कृष्णः समन्ताद्वीक्ष्य ता वचः ॥ १५ ॥
श्रीभगवानुवाच -
भवतीभिर्मार्गशीर्षे कृतं कात्यायनीव्रतम् ।
मदर्थं तच्च सफलं भविष्यति न संशयः ॥ १६ ॥
परश्वोऽहनि चाटव्यां कृष्णातीरे मनोहरे ।
युष्माभिश्च करिष्यामि रासं पूर्णमनोरथम् ॥ १७ ॥
इत्युक्त्वाऽथ गते कृष्णे परिपूर्णतमे हरौ ।
प्राप्तानन्दा मंदहासा गोप्यः सर्वा गृहान् ययुः ॥ १८ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं-राजन् ! मिथिलेश्वर ! अब मिथिलादेशमें
उत्पन्न गोपियोंका आख्यान सुनो। यह दशाश्वमेध - तीर्थपर स्नानका फल देनेवाला और भक्ति-भावको
बढ़ानेवाला है। श्रीरामचन्द्रजीके वरसे जो नौ नन्दोंके घरोंमें उत्पन्न हुई थीं, वे
मैथिलीरूपा गोपकन्याएँ परम कमनीय नन्दनन्दनका दर्शन करके मोहित हो गयीं ॥ १- २ ॥
उन्होंने मार्गशीर्षक शुभ मास में कात्यायनीका
व्रत किया और उनकी मिट्टी की प्रतिमा बनाकर वे षोडशोपचा रसे उसकी पूजा करने लगीं। अरुणोदयकी वेला में
वे प्रतिदिन एक साथ भगवान् के गुण गाती हुई आतीं और श्रीयमुनाजीके
जल में स्नान करती थीं। एक दिन वे व्रजाङ्गनाएँ अपने वस्त्र यमुनाजीके
किनारे रखकर उनके जलमें प्रविष्ट हुईं और दोनों हाथोंसे जल उलीचकर एक-दूसरी को भिगोती हुई जल-विहार करने लगीं ॥ ३- ५ ॥
प्रातःकाल भगवान् श्यामसुन्दर वहाँ आये और तुरंत उन
सबके वस्त्र लेकर कदम्बपर आरूढ़ हो चोर की तरह चुपचाप बैठ गये
। राजन् ! अपने वस्त्रोंको न देखकर वे गोपकन्याएँ बड़े विस्मयमें पड़ीं तथा कदम्बपर
बैठे हुए श्यामसुन्दरको देखकर लजा गयीं और हँसने लगीं। तब वृक्षपर बैठे हुए श्रीकृष्ण
उन गोपियोंसे कहने लगे- 'तुम सब लोग यहाँ आकर अपने- अपने कपड़े ले जाओ, अन्यथा मैं
नहीं दूँगा ।' राजन् ! तब वे गोपकन्याएँ शीतल जलके भीतर खड़ी खड़ी हँसती हुई लज्जासे
मुँह नीचे किये बोलीं --॥ ६-९ ॥
गोपियोंने कहा- हे मनोहर नन्दनन्दन ! हे गोपरत्न !
हे गोपाल बंशके नूतन हंस ! हे महान् पीड़ाको हर लेनेवाले श्रीश्यामसुन्दर ! तुम जो
आज्ञा करोगे, वही हम करेंगी। तुम्हारी दासी होकर भी हम यहाँ वस्त्रहीन होकर कैसे रहें?
आप गोपियोंके वस्त्र लूटनेवाले और माखनचोर हैं। व्रजमें जन्म लेकर भी बड़े रसिक हैं।
भय तो आपको छू नहीं सका है। हमारा वस्त्र हमें लौटा दीजिये, नहीं तो हम मथुरा- नरेशके
दरबार में आपके द्वारा इस अवसरपर की गयी बड़ी भारी अनीतिकी शिकायत करेंगी ।। १०-११
॥
श्रीभगवान् बोले- सुन्दर मन्दहास्य से
सुशोभित होनेवाली गोपाङ्गनाओ ! यदि तुम मेरी दासियाँ हो तो इस कदम्बकी जड़के पास आकर
अपने वस्त्र ले लो । नहीं तो मैं इन सब वस्त्रों को अपने घर उठा
ले जाऊँगा । अतः तुम अविलम्ब मेरे कथनानुसार कार्य करो ॥ १२ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! तब वे सब व्रजवासिनी
गोपियाँ अत्यन्त काँपती हुई जलसे बाहर निकलीं और आनत-शरीर हो, हाथोंसे योनिको ढककर
शीतसे कष्ट पाते हुए श्रीकृष्णके हाथसे दिये गये वस्त्र लेकर उन्होंने अपने अङ्गों
में धारण किये । इसके बाद श्रीकृष्णको लजीली आँखोंसे देखती हुई वहाँ मोहित हो खड़ी
रहीं । उनके परम प्रेमसूचक अभिप्रायको जानकर मन्द मन्द मुस्कराते हुए श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण
उनपर चारों ओरसे दृष्टिपात करके इस प्रकार बोले-- ॥ १३ – १५ ॥
श्रीभगवान् ने कहा—गोपाङ्गनाओ!
तुमने मार्गशीर्ष मासमें मेरी प्राप्तिके लिये जो कात्यायनी - व्रत किया है, वह अवश्य
सफल होगा—इसमें संशय नहीं है। परसों दिनमें वनके भीतर यमुनाके मनोहर तटपर मैं तुम्हारे
साथ रास करूँगा, जो तुम्हारा मनोरथ पूर्ण करनेवाला होगा ।। १६-१७ ।।
यों कहकर परिपूर्णतम श्रीहरि जब चले गये, तब आनन्दोल्लाससे
परिपूर्ण हो मन्दहासकी छटा बिखेरती हुई वे समस्त गोप-बालाएँ अपने घरों को गयीं ॥ १८ ॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके
अन्तर्गत नारद-बहुलाश्व-संवादमें 'मैथिलीरूपा गोपियोंका उपाख्यान' नामक तीसरा अध्याय
पूरा हुआ ॥ ३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
💐🌹🥀💐जय श्रीहरि:🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे
हे नाथ नारायण वासुदेव
जय गोपीजन चितचोर प्रभु
जय गोविंद गोपाल नंदलाल