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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(माधुर्यखण्ड)
ग्यारहवाँ अध्याय (पोस्ट 02)
लक्ष्मीजीकी सखियोंका वृषभानुओंके घरोंमें
कन्यारूपसे उत्पन्न होकर माघ मासके व्रतसे श्रीकृष्णको रिझाना और पाना
गोप्य ऊचुः -
कस्त्वं योगिन्नाम किं ते कुत्र वासस्तु ते मुने ।
का वृत्तिस्तव का सिद्धिर्वद नो वदतां वर ॥ १३ ॥
सिद्ध उवाच -
योगेश्वरोऽहं मे वासः सदा मानसरोवरे ।
नाम्ना स्वयंप्रकाशोऽहं निरन्नः स्वबलात्सदा ॥ १४ ॥
सार्थे परमहंसानां याम्यहं हे व्रजांगनाः ।
भूतं भव्यं वर्तमानं वेद्म्यहं दिव्यदर्शनः ॥ १५ ॥
उच्चाटनं मारणं च मोहनं स्तंबनं तथा ।
जानामि मंत्रविद्याभिः वशीकरणमेव च ॥ १६ ॥
गोप्य ऊचुः -
यदि जानासि योगिंस्त्वं वार्तां कालत्रयोद्भवाम् ।
किं वर्तते नो मनसि वद तर्हि महामते ॥ १७ ॥
सिद्ध उवाच -
भवतीनां च कर्णांते कथनीयमिदं वचः ।
युष्मदाज्ञया वा वक्ष्ये सर्वेषां शृण्वतामिह ॥ १८ ॥
गोप्य ऊचुः -
सत्यं योगेश्वरोऽसि त्वं त्रिकालज्ञो न संशयः ।
वशीकरणमंत्रेण सद्यः पठनमात्रतः ॥ १९ ॥
यदि सोऽत्रैव चायाति चिंतितो योऽस्ति वै मुने ।
तदा मन्यामहे त्वां वै मंत्रिणां प्रवरं परम् ॥ २० ॥
सिद्ध उवाच -
दुर्लभो दुर्घटो भावो युष्माभिर्गदितः स्त्रियः ।
तथाप्यहं करिष्यामि वाक्यं न चलते सताम् ॥ २१ ॥
निमीलयत नेत्राणि मा शोचं कुरुत स्त्रियः ।
भविष्यति न संदेहो युष्माकं कार्यमेव च ॥ २२ ॥
श्रीनारद उवाच -
तथेति मीलिताक्षीषु गोपीषु भगवान्हरिः ।
विहाय तद्योगिरूपं बभौ श्रीनन्दनन्दनः ॥ २३ ॥
नेत्राण्युन्मील्य ददृशुः सानन्दं नन्दनन्दनम् ।
विस्मितास्तत्प्रभावज्ञा हर्षिता मोहमागताः ॥ २४ ॥
माघमासे महारासे पुण्ये वृन्दावने वने ।
ताभिः सार्द्धं हरी रेमे सुरीभिः सुरराडिव ॥ २५ ॥
गोपियोंने पूछा- योगीबाबा ! तुम्हारा नाम क्या है
? मुनिजी ! तुम रहते कहाँ हो ? तुम्हारी वृत्ति क्या है और तुमने कौन-सी सिद्धि पायी
है ? वक्ताओं में श्रेष्ठ ! हमें ये सब बातें बताओ ॥१३॥
सिद्धयोगीने कहा- मैं योगेश्वर हूँ और सदा मानसरोवर
में निवास करता हूँ। मेरा नाम स्वयंप्रकाश है। मैं अपनी शक्तिसे सदा बिना खाये पीये
ही रहता हूँ। व्रजाङ्गनाओ ! परमहंसोंका जो अपना स्वार्थ- आत्मसाक्षात्कार है, उसीकी
सिद्धिके लिये मैं जा रहा हूँ। मुझे दिव्यदृष्टि प्राप्त हो चुकी है। मैं भूत, भविष्य
और वर्तमान तीनों कालोंकी बातें जानता हूँ । मन्त्र- विद्याद्वारा उच्चाटन, मारण, मोहन,
स्तम्भन तथा वशीकरण भी जानता हूँ । १४ – १६ ॥
गोपियोंने पूछा- योगीबाबा ! तुम तो बड़े बुद्धिमान्
हो । यदि तुम्हें तीनों कालोंकी बातें ज्ञात हैं तो बताओ न, हमारे मनमें क्या है ?
।। १७ ।।
सिद्धयोगीने कहा- यह बात तो आप- लोगोंके कानमें कहनेयोग्य
है । अथवा यदि आप- लोगोंकी आज्ञा हो तो सब लोगोंके सामने ही कह डालूँ ॥ १८ ॥
गोपियाँ बोलीं- मुने! तुम सचमुच योगेश्वर हो । तुम्हें
तीनोंकालोंका ज्ञान है, इसमें संशय नहीं यदि तुम्हारे वशीकरण मन्त्रसे, उसके पाठ करनेमात्रसे
तत्काल वे यहीं आ जायँ, जिनका कि हम मन-ही-मन चिन्तन करती हैं, तब हम मानेंगी कि तुम
मन्त्रज्ञों में सबसे श्रेष्ठ हो । १९-२० ।।
सिद्धयोगीने कहा - व्रजाङ्गनाओ ! तुमने तो ऐसा भाव
व्यक्त किया है, जो परम दुर्लभ और दुष्कर है; तथापि मैं तुम्हारी मनोनीत वस्तुको प्रकट
करूँगा; क्योंकि सत्पुरुषोंकी कही हुई बात झूठ नहीं होती । व्रजकी वनिताओ ! चिन्ता
न करो; अपनी आँखें मूँद लो। तुम्हारा कार्य अवश्य सिद्ध होगा, इसमें संशय नहीं है ।।
२१-२२ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! 'बहुत अच्छा' कहकर जब
गोपियोंने अपनी आँखें मूँद लीं, तब भगवान् श्रीहरि योगीका रूप छोड़कर श्रीनन्दनन्दन्के
रूपमें प्रकट हो गये। गोपियोंने आँखें खोलकर देखा तो सामने नन्दनन्दन सानन्द मुस्करा
रहे हैं। पहले ती वे अत्यन्त विस्मित हुईं, फिर योगीका प्रभाव जाननेपर उन्हें हर्ष
हुआ और प्रियतमका वह मोहन रूप देखकर वे मोहित हो गयीं । तदनन्तर माघ मासके महारासमें
पावन वृन्दावनके भीतर श्रीहरिने उन गोपाङ्गनाओं के साथ उसी प्रकार
विहार किया, जैसे देवाङ्गनाओंके साथ देवराज इन्द्र करते हैं ।। २३–२५ ॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके
अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवादमें रमावैकुण्ठ, श्वेतद्वीप, ऊर्ध्ववैकुण्ठ, अजितपद तथा
श्रीलोकाचलमें निवास करनेवाली 'लक्ष्मीजीकी सखियोंके गोपीरूपमें प्रकट होनेका आख्यान'
नामक ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ११ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
🪷🥀🌹🪷जय श्रीकृष्ण🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
जय हो रास रासेश्वर गोविंद की
जय श्री राधे कृष्ण🙏🙏