रविवार, 20 अक्तूबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) सत्रहवाँ अध्याय


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(माधुर्यखण्ड)

सत्रहवाँ अध्याय

 

श्रीयमुनाका स्तोत्र

 

मांधातोवाच -
यमुनायाः स्तवं दिव्यं सर्वसिद्धिकरं परम् ।
सौभरे मुनिशार्दूल वद मां कृपया त्वरम् ॥ १ ॥


श्रीसौभरिरुवाच -
मार्तंडकन्यकायास्तु स्तवं शृणु महामते ।
सर्वसिद्धिकरं भूमौ चातुर्वर्ग्यफलप्रदम् ॥ २ ॥
कृष्णवामांसभूतायै कृष्णायै सततं नमः ।
नमः श्रीकृष्णरूपिण्यै कृष्णे तुभ्यं नमो नमः ॥ ३ ॥
यः पापपंकांबुकलंककुत्सितः
     कामी कुधीः सत्सु कलिं करोति हि ।
वृन्दावनं धाम ददाति तस्मै
     नदन्मिलिन्दादि कलिन्दनन्दिनी ॥ ४ ॥
कृष्णे साक्षात्कृष्णरूपा त्वमेव
     वेगावर्ते वर्तसे मत्स्यरूपी ।
ऊर्मावूर्मौ कूर्मरूपी सदा ते
     बिंदौ बिंदौ भाति गोविन्ददेवः ॥ ५ ॥
वन्दे लीलावतीं त्वां
     सगनघननिभां कृष्णवामांसभूतां ।
वेगं वै वैरजाख्यं
     सकलजलचयं खण्डयंतीं बलात्स्वात् ।
छित्वा ब्रह्माण्डमारात्
     सुरनगरनगान् गण्डशैलादिदुर्गान् ।
भित्वा भूखण्डमध्ये
     तटनिधृतवतीमूर्मिमालां प्रयान्तीम् ॥ ६ ॥
दिव्यं कौ नामधेयं
     श्रुतमथ यमुने दण्डयत्यद्रितुल्यं ।
पापव्यूहं त्वखण्डं
     वसतु मम गिरां मण्डले तु क्षणं तत् ।
दण्ड्यांश्चाकार्यदण्ड्या
     सकृदपि वचसा खण्डितं यद्‍गृहीतं ।
भ्रातुर्मार्तंडसूनो-
     रटति पुरि दृढः ते प्रचण्डोऽतिदण्डः ॥ ७ ॥
रज्जुर्वा विषयांधकूपतरणे
     पापाखुदर्वीकरी ।
वेण्युष्णिक् च विराजमूर्तिशिरसो
     मालाऽस्ति वा सुन्दरी ।
धन्यं भाग्यमतः परं भुवि नृणां
     यत्रादिकृद्वल्लभा ।
गोलोकेऽप्यतिदुर्लभाऽतिशुभगा
     भात्यद्वितीया नदी ॥ ८ ॥
गोपीगोकुलगोपकेलिकलिते
     कालिन्दि कृष्णप्रभे ।
त्वत्कूले जललोलगोलविचलत्
     कल्लोलकोलाहलः ।
त्वत्कांतारकुतूहलालिकुलकृत्
     झंकारकेकाकुलः ।
कूजत्कोकिलसंकुलो व्रजलता
     लंकारभृत्पातु माम् ॥ ९ ॥
भवंति जिह्वास्तनुरोमतुल्या
     गिरो यदा भूसिकता इवाशु ।
तदप्यलं यान्ति न ते गुणांतं
     संतो महांतः किल शेषतुल्याः ॥ १० ॥
कलिन्दगिरिनन्दिनीस्तव उषस्ययं वापरः
     श्रुतश्च यदि पाठितो भुवि तनोति सन्मंगलम् ।
जनोऽपि यदि धारयेत्किल पठेच्च यो नित्यशः
     स याति परमं पदं निजनिकुञ्जलीलावृतम् ॥ ११ ॥

 

मांधाता बोले—मुनिश्रेष्ठ सौभरे ! सम्पूर्ण सिद्धिप्रदान करनेवाला जो यमुनाजीका दिव्य उत्तम स्तोत्र है, उसका कृपापूर्वक मुझसे वर्णन कीजिये ॥ १ ॥

श्री सौभरि मुनि ने कहा- महामते ! अब तुम सूर्यकन्या यमुनाका स्तोत्र सुनो, जो इस भूतलपर समस्त सिद्धियोंको देनेवाला तथा धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप चारों पुरुषार्थोंका फल देनेवाला है। श्रीकृष्णके बायें कंधेसे प्रकट हुई 'कृष्णा' को सदा मेरा नमस्कार है। कृष्णे ! तुम श्रीकृष्णस्वरूपिणी हो; तुम्हें बारंबार नमस्कार हैं । जो पापरूपी पङ्कजलके कलङ्कसे कुत्सित कामी कुबुद्धि मनुष्य सत्पुरुषोंके साथ कलह करता है, उसे भी गूँजते हुए भ्रमर और जलपक्षियोंसे युक्त कलिन्दनन्दिनी यमुना वृन्दावनधाम प्रदान करती हैं ॥ २-

कृष्णे ! तुम्हीं साक्षात् श्रीकृष्णस्वरूपा हो। तुम्हीं प्रलयसिन्धुके वेगयुक्त भँवरमें महामत्स्यरूप धारण करके विराजती हो। तुम्हारी ऊर्मि-ऊर्मि में भगवान् कूर्मरूप से वास करते हैं तथा तुम्हारे बिन्दु-बिन्दु में श्रीगोविन्ददेव की आभाका दर्शन होता है ॥

तटिनि ! तुम लीलावती हो, मैं तुम्हारी बन्दना करता हूँ। तुम घनीभूत मेघके समान श्याम कान्ति धारण करती हो । श्रीकृष्णके बायें कंधेसे तुम्हारा प्राकट्य हुआ है 1 सम्पूर्ण जलोंकी राशिरूप जो विरजा नदीका वेग है, उसको भी अपने बलसे खण्डित करती हुई, ब्रह्माण्ड- को छेदकर देवनगर, पर्वत, गण्डशैल आदि दुर्गम वस्तुओं का भेदन करके तुम इस भूमिखण्ड के मध्यभाग में अपनी तरङ्गमालाओंको स्थापित करके प्रवाहित होती हो ॥

यमुने! पृथ्वीपर तुम्हारा नाम दिव्य है वह श्रवणपथमें आकर पर्वताकार पापसमूहको भी दण्डित एवं खण्डित कर देता है। तुम्हारा वह अखण्ड नाम मेरे बाङ्मण्डल – वचनसमूहमें क्षणभर भी स्थित हो जाय । यदि वह एक बार भी वाणीद्वारा गृहीत हो जाय तो समस्त पापोंका खण्डन हो जाता है। उसके स्मरणसे दण्डनीय पापी भी अदण्डनीय हो जाते हैं। तुम्हारे भाई सूर्यपुत्र यमराजके नगरमें तुम्हारा 'प्रचण्डा' यह नाम सुदृढ़ अतिदण्ड बनकर विचरता है ॥

तुम विषयरूपी अन्धकूपसे पार जानेके लिये रस्सी हो; अथवा पापरूपी चूहोंके निगल जानेवाली काली नागिन हो; अथवा विराट् पुरुषकी मूर्तिकी वेणीको अलंकृत करनेवाला नीले पुष्पोंका गजरा हो या उनके मस्तकपर सुशोभित होनेवाली सुन्दर नीलमणिकी माला हो । जहाँ आदिकर्ता भगवान् श्रीकृष्णकी वल्लभा, गोलोकमें भी अतिदुर्लभा, अति सौभाग्यवती अद्वितीया नदी श्रीयमुना प्रवाहित होती हैं, उस भूतलके मनुष्योंका भाग्य इसी कारणसे धन्य है ॥

गौओंके समुदाय तथा गोप-गोपियोंकी क्रीडासे कलित कलिन्दनन्दिनी यमुने ! कृष्णप्रभे ! तुम्हारे तटपर जो जलकी गोलाकार, चपल एवं उत्ताल तरङ्गोंका कोलाहल (कल-कल ख) होता है, वह सदा मेरी रक्षा करें। तुम्हारे दुर्गम कुञ्जोंके प्रति कौतूहल रखनेवाले भ्रमरसमुदायके गुञ्जारव, मयूरोंकी केका तथा कूजते हुए कोकिलोंकी काकलीका शब्द भी उस कोलाहलमें मिला रहता है तथा वह व्रजलताओंके अलंकारको धारण करनेवाला है ॥

शरीरमें जितने रोम हैं, उतनी ही जिह्वाएँ हो जायँ, धरतीपर जितने सिकताकण हैं, उतनी ही वाग्देवियाँ आ जायँ और उनके साथ संत-महात्मा भी शेषनागके समान सहस्रों जिह्वाओंसे युक्त होकर गुणगान करने लग जायँ, तथापि तुम्हारे गुणोंका अन्त कभी नहीं हो सकता। कलिन्दगिरिनन्दिनी यमुनाका यह उत्तम स्तोत्र यदि उषःकालमें ब्राह्मणके मुखसे सुना जाय अथवा स्वयं पढ़ा जाय तो भूतलपर परम मङ्गलका विस्तार करता है। जो कोई मनुष्य भी यदि नित्यशः इसका धारण (चिन्तन) करे तो वह भगवान्‌की निज निकुञ्जलीलाके द्वारा वरण किये गये परमपदको प्राप्त होता है  १०- ११ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके अन्तर्गत श्रीसौभरि मांधाताके संवादमें 'श्रीयमुनास्तोत्र' नामक सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १७ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



1 टिप्पणी:

  1. 🌹💖🥀जय श्रीकृष्ण🙏🙏
    जय यमुना महारानी कृष्णप्रिया

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