॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०३)
विराट् शरीर की उत्पत्ति
स्मरन्विश्वसृजामीशो विज्ञापितं अधोक्षजः ।
विराजं अतपत्स्वेन तेजसैषां विवृत्तये ॥ १० ॥
अथ तस्याभितप्तस्य कति चायतनानि ह ।
निरभिद्यन्त देवानां तानि मे गदतः श्रृणु ॥ ११ ॥
तस्याग्निरास्यं निर्भिन्नं लोकपालोऽविशत्पदम् ।
वाचा स्वांशेन वक्तव्यं ययासौ प्रतिपद्यते ॥ १२ ॥
निर्भिन्नं तालु वरुणो लोकपालोऽविशद्धरेः ।
जिह्वयांशेन च रसं ययासौ प्रतिपद्यते ॥ १३ ॥
निर्भिन्ने अश्विनौ नासे विष्णोः आविशतां पदम् ।
घ्राणेनांशेन गन्धस्य प्रतिपत्तिर्यतो भवेत् ॥ १४ ॥
निर्भिन्ने अक्षिणी त्वष्टा लोकपालोऽविशद्विभोः ।
चक्षुषांशेन रूपाणां प्रतिपत्तिर्यतो भवेत् ॥ १५ ॥
फिर विश्व की रचना करनेवाले महत्तत्त्वादि के अधिपति श्रीभगवान् ने उनकी प्रार्थना को स्मरण कर उनकी वृत्तियों को जगाने के लिये अपने चेतनरूप तेज से उस विराट् पुरुष को प्रकाशित किया, उसे जगाया ॥ १० ॥ उसके जाग्रत् होते ही देवताओंके लिये कितने स्थान प्रकट हुए—यह मैं बतलाता हूँ, सुनो ॥ ११ ॥ विराट् पुरुष के पहले मुख प्रकट हुआ; उसमें लोकपाल अग्नि अपने अंश वागिन्द्रिय के समेत प्रविष्ट हो गया, जिससे यह जीव बोलता है ॥ १२ ॥ फिर विराट् पुरुषके तालु उत्पन्न हुआ; उसमें लोकपाल वरुण अपने अंश रसनेन्द्रियके सहित स्थित हुआ, जिससे जीव रस ग्रहण करता है ॥ १३ ॥ इसके पश्चात् उस विराट् पुरुष के नथुने प्रकट हुए; उनमें दोनों अश्विनी- कुमार अपने अंश घ्राणेन्द्रियके सहित प्रविष्ट हुए, जिससे जीव गन्ध ग्रहण करता है ॥ १४ ॥ इसी प्रकार जब उस विराट् देह में आँखें प्रकट हुर्ईं, तब उनमें अपने अंश नेत्रेन्द्रिय के सहित—लोकपति सूर्यने प्रवेश किया, जिस नेत्रेन्द्रियसे पुरुषको विविध रूपोंका ज्ञान होता है ॥ १५ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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