॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०२)
विराट् शरीर की उत्पत्ति
हिरण्मयः स पुरुषः सहस्रपरिवत्सरान् ।
आण्डकोश उवासाप्सु सर्वसत्त्वोपबृंहितः ॥ ६ ॥
स वै विश्वसृजां गर्भो देवकर्मात्मशक्तिमान् ।
विबभाजात्मनात्मानं एकधा दशधा त्रिधा ॥ ७ ॥
एष ह्यशेषसत्त्वानां आत्मांशः परमात्मनः ।
आद्योऽवतारो यत्रासौ भूतग्रामो विभाव्यते ॥ ८ ॥
साध्यात्मः साधिदैवश्च साधिभूत इति त्रिधा ।
विराट्प्राणो दशविध एकधा हृदयेन च ॥ ९ ॥
जलके भीतर जो अण्डरूप आश्रयस्थान था, उसमें वह हिरण्यमय विराट् पुरुष सम्पूर्ण जीवों को साथ लेकर एक हजार दिव्य वर्षों तक रहा ॥ ६ ॥ वह विश्वरचना करने वाले तत्त्वों का गर्भ (कार्य) था तथा ज्ञान, क्रिया और आत्म- शक्ति से सम्पन्न था। इन शक्तियों से उसने स्वयं अपने क्रमश: एक (हृदयरूप), दस (प्राणरूप) और तीन (आध्यात्मिक,आधिदैविक,आधिभौतिक)विभाग किये ॥ ७ ॥ यह विराट् पुरुष ही प्रथम जीव होनेके कारण समस्त जीवोंका आत्मा, जीवरूप होने के कारण परमात्मा का अंश और प्रथम अभिव्यक्त होने के कारण भगवान् का आदि-अवतार है । यह सम्पूर्ण भूतसमुदाय इसी में प्रकाशित होता है ॥ ८ ॥ यह अध्यात्म,अधिभूत और अधिदैवरूप से तीन प्रकार का, प्राणरूप से दस प्रकार का [*] और हृदयरूप से एक प्रकारका है ॥ ९ ॥
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[*] दस इन्द्रियोंसहित मन अध्यात्म है, इन्द्रियादिके विषय अधिभूत हैं, इन्द्रियाधिष्ठाता देव अधिदैव हैं तथा प्राण, अपान, उदान, समान, व्यान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त और धनञ्जय—ये दस प्राण हैं।
शेष आगामी पोस्ट में --
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