॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०१)
विराट् शरीर की उत्पत्ति
ऋषिरुवाच -
इति तासां स्वशक्तीनां सतीनामसमेत्य सः ।
प्रसुप्तलोकतन्त्राणां निशाम्य गतिमीश्वरः ॥ १ ॥
कालसञ्ज्ञां तदा देवीं बिभ्रत् शक्तिमुरुक्रमः ।
त्रयोविंशति तत्त्वानां गणं युगपदाविशत् ॥ २ ॥
सोऽनुप्रविष्टो भगवान् चेष्टारूपेण तं गणम् ।
भिन्नं संयोजयामास सुप्तं कर्म प्रबोधयन् ॥ ३ ॥
प्रबुद्धकर्म दैवेन त्रयोविंशतिको गणः ।
प्रेरितोऽजनयत्स्वाभिः मात्राभिः अधिपूरुषम् ॥ ४ ॥
परेण विशता स्वस्मिन् मात्रया विश्वसृग्गणः ।
चुक्षोभान्योन्यमासाद्य यस्मिन् लोकाश्चराचराः ॥ ५ ॥
श्रीमैत्रेय ऋषि ने कहा—सर्वशक्तिमान् भगवान् ने जब देखा कि आपस में संगठित न होने के कारण ये मेरी महत्तत्त्व आदि शक्तियाँ विश्व-रचना के कार्य में असमर्थ हो रही हैं, तब वे कालशक्ति को स्वीकार करके एक साथ ही महत्तत्त्व, अहंकार, पञ्चभूत, पञ्चतन्मात्रा और मनसहित ग्यारह इन्द्रियाँ —इन तेईस तत्त्वोंके समुदायमें प्रविष्ट हो गये ॥ १-२ ॥ उनमें प्रविष्ट होकर उन्होंने जीवों के सोये हुए अदृष्ट को जाग्रत् किया और परस्पर विलग हुए उस तत्त्वसमूह को अपनी क्रियाशक्ति के द्वारा आपस में मिला दिया ॥ ३ ॥ इस प्रकार जब भगवान् ने अदृष्ट को कार्योन्मुख किया, तब उस तेईस तत्त्वों के समूह ने भगवान् की प्रेरणा से अपने अंशों द्वारा अधिपुरुष—विराट्को उत्पन्न किया ॥ ४ ॥ अर्थात् जब भगवान् ने अंशरूप से अपने उस शरीर में प्रवेश किया, तब वह विश्वरचना करनेवाला महत्तत्त्वादि का समुदाय एक-दूसरे से मिलकर परिणामको प्राप्त हुआ। यह तत्त्वोंका परिणाम ही विराट् पुरुष है, जिसमें चराचर जगत् विद्यमान है ॥ ५ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
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