॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१२)
विदुरजीका प्रश्न और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन
तत्ते वयं लोकसिसृक्षयाद्य
त्वयानुसृष्टास्त्रिभिरात्मभिः स्म ।
सर्वे वियुक्ताः स्वविहारतन्त्रं
न शक्नुमस्तत् प्रतिहर्तवे ते ॥ ४७ ॥
यावद्बवलिं तेऽज हराम काले
यथा वयं चान्नमदाम यत्र ।
यथोभयेषां त इमे हि लोका
बलिं हरन्तोऽन्नमदन्त्यनूहाः ॥ ४८ ॥
त्वं नः सुराणामसि सान्वयानां
कूटस्थ आद्यः पुरुषः पुराणः ।
त्वं देव शक्त्यां गुणकर्मयोनौ
रेतस्त्वजायां कविमादधेऽजः ॥ ४९ ॥
ततो वयं मत्प्रमुखा यदर्थे
बभूविमात्मन् करवाम किं ते ।
त्वं नः स्वचक्षुः परिदेहि शक्त्या
देव क्रियार्थे यदनुग्रहाणाम् ॥ ५० ॥
(देवता कहते हैं) आदिदेव ! आपने सृष्टि-रचना की इच्छा से हमें त्रिगुणमय रचा है। इसलिये विभिन्न स्वभाववाले होनेके कारण हम आपसमें मिल नहीं पाते और इसीसे आपकी क्रीडाके साधनरूप ब्रह्माण्डकी रचना करके उसे आपको समर्पित करनेमें असमर्थ हो रहे हैं ॥ ४७ ॥ अत: जन्मरहित भगवन् ! जिससे हम ब्रह्माण्ड रचकर आप को सब प्रकार के भोग समय पर समर्पित कर सकें और जहाँ स्थित होकर हम भी अपनी योग्यताके अनुसार अन्न ग्रहण कर सकें तथा ये सब जीव भी सब प्रकार की विघ्नबाधाओं से दूर रहकर हम और आप दोनों को भोग समर्पित करते हुए अपना-अपना अन्न भक्षण कर सकें, ऐसा कोई उपाय कीजिये ॥ ४८ ॥ आप निर्विकार पुराणपुरुष ही अन्य कार्यवर्ग के सहित हम देवताओंके आदि कारण हैं। देव ! पहले आप अजन्मा ही ने सत्त्वादि गुण और जन्मादि कर्मों की कारणरूपा मायाशक्ति में चिदाभासरूप वीर्य स्थापित किया था ॥ ४९ ॥ परमात्मदेव ! महत्तत्त्वादिरूप हम देवगण जिस कार्यके लिये उत्पन्न हुए हैं, उसके सम्बन्ध में हम क्या करें ? देव ! हम पर आप ही अनुग्रह करने वाले हैं । इसलिये ब्रह्माण्डरचना के लिये आप हमें क्रियाशक्ति के सहित अपनी ज्ञानशक्ति भी प्रदान कीजिये ॥ ५० ॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे विदुरोद्धवसंवादे पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
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