॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)
ब्रह्माजीकी उत्पत्ति
स पद्मकोशः सहसोदतिष्ठत्
कालेन कर्मप्रतिबोधनेन ।
स्वरोचिषा तत्सलिलं विशालं
विद्योतयन्नर्क इवात्मयोनिः ॥ १४ ॥
तल्लोकपद्मं स उ एव विष्णुः
प्रावीविशत्सर्वगुणावभासम् ।
तस्मिन् स्वयं वेदमयो विधाता
स्वयंभुवं यं स्म वदन्ति सोऽभूत् ॥ १५ ॥
तस्यां स चाम्भोरुहकर्णिकायां
अवस्थितो लोकमपश्यमानः ।
परिक्रमन् व्योम्नि विवृत्तनेत्रः
चत्वारि लेभेऽनुदिशं मुखानि ॥ १६ ॥
तस्माद्युगान्तश्वसनावघूर्ण
जलोर्मिचक्रात् सलिलाद्विरूढम् ।
उपाश्रितः कञ्जमु लोकतत्त्वं
नात्मानमद्धाविददादिदेवः ॥ १७ ॥
कर्मशक्ति को जाग्रत् करने वाले काल के द्वारा विष्णु भगवान् की नाभि से प्रकट हुआ वह सूक्ष्मतत्त्व कमलकोश के रूप में सहसा ऊपर उठा और उसने सूर्य के समान अपने तेज से उस अपार जलराशि को देदीप्यमान कर दिया ॥ १४ ॥ सम्पूर्ण गुणोंको प्रकाशित करनेवाले उस सर्वलोकमय कमल में वे विष्णुभगवान् ही अन्तर्यामीरूपसे प्रविष्ट हो गये। तब उसमेंसे बिना पढ़ाये ही स्वयं सम्पूर्ण वेदोंको जाननेवाले साक्षात् वेदमूर्ति श्रीब्रह्माजी प्रकट हुए, जिन्हें लोग स्वयम्भू कहते हैं ॥ १५ ॥ उस कमलकी कर्णिका (गद्दी) में बैठे हुए ब्रह्माजीको जब कोई लोक दिखायी नहीं दिया, तब वे आँखें फाडक़र आकाशमें चारों ओर गर्दन घुमाकर देखने लगे, इससे उनके चारों दिशाओंमें चार मुख हो गये ॥ १६ ॥ उस समय प्रलयकालीन पवनके थपेड़ोंसे उछलती हुई जलकी तरङ्गमालाओं के कारण उस जलराशिसे ऊपर उठे हुए कमलपर विराजमान आदिदेव ब्रह्माजी को अपना तथा उस लोकतत्त्वरूप कमलका कुछ भी रहस्य न जान पड़ा ॥ १७ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
🥀💖🌹💐जय श्रीहरि:🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
नारायण नारायण नारायण नारायण