गुरुवार, 19 दिसंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-आठवां अध्याय..(पोस्ट०८)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

ब्रह्माजीकी उत्पत्ति

चराचरौको भगवन् महीध्र
     महीन्द्रबन्धुं सलिलोपगूढम् ।
किरीटसाहस्रहिरण्यश्रृङ्गं
     आविर्भवत्कौस्तुभरत्न गर्भम् ॥ ३० ॥
निवीतमाम्नायमधुव्रतश्रिया
     स्वकीर्तिमय्या वनमालया हरिम् ।
सूर्येन्दुवाय्वग्न्यगमं त्रिधामभिः
     परिक्रमत् प्राधनिकैर्दुरासदम् ॥ ३१ ॥
तर्ह्येव तन्नाभिसरःसरोजं
     आत्मानमम्भः श्वसनं वियच्च ।
ददर्श देवो जगतो विधाता
     नातः परं लोकविसर्गदृष्टिः ॥ ३२ ॥
स कर्मबीजं रजसोपरक्तः
     प्रजाः सिसृक्षन्नियदेव दृष्ट्वा ।
अस्तौद् विसर्गाभिमुखस्तमीड्यं
     अव्यक्तवर्त्मन्यभिवेशितात्मा ॥ ३३ ॥

वे नागराज अनन्तके बन्धु श्रीनारायण ऐसे जान पड़ते हैं, मानो कोई जलसे घिरे हुए पर्वतराज ही हों। पर्वतपर जैसे अनेकों जीव रहते हैं, उसी प्रकार वे सम्पूर्ण चराचरके आश्रय हैं; शेषजीके फणोंपर जो सहस्रों मुकुट हैं वे ही मानो उस पर्वतके सुवर्णमण्डित शिखर हैं तथा वक्ष:स्थलमें विराजमान कौस्तुभमणि उसके गर्भसे प्रकट हुआ रत्न है ॥ ३० ॥ प्रभुके गलेमें वेदरूप भौंरोंसे गुञ्जायमान अपनी कीर्तिमयी वनमाला विराज रही है; सूर्य, चन्द्र, वायु और अग्नि आदि देवताओं की भी आप तक पहुँच नहीं है तथा त्रिभुवन में बेरोक- टोक विचरण करनेवाले सुदर्शनचक्रादि आयुध भी प्रभु के आसपास ही घूमते रहते हैं, उनके लिये भी आप अत्यन्त दुर्लभ हैं ॥ ३१ ॥
तब विश्वरचना की इच्छावाले लोकविधाता ब्रह्माजीने भगवान्‌के नाभिसरोवरसे प्रकट हुआ वह कमल, जल, आकाश, वायु और अपना शरीर—केवल ये पाँच ही पदार्थ देखे, इनके सिवा और कुछ उन्हें दिखायी न दिया ॥ ३२ ॥ रजोगुणसे व्याप्त ब्रह्माजी प्रजाकी रचना करना चाहते थे। जब उन्होंने सृष्टिके कारणरूप केवल ये पाँच ही पदार्थ देखे, तब लोकरचनाके लिये उत्सुक होनेके कारण वे अचिन्त्यगति श्रीहरिमें चित्त लगाकर उन परमपूजनीय प्रभुकी स्तुति करने लगे ॥३३॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे अष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


1 टिप्पणी:

  1. 🌹💖🥀💐जय श्रीहरि:🙏🙏
    ॐ श्रीपरमात्मने नमः
    ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
    नारायण नारायण नारायण नारायण

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