॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०८)
विराट् शरीर की उत्पत्ति
एतत् क्षत्तर्भगवतो दैवकर्मात्मरूपिणः ।
कः श्रद्दध्यादुपाकर्तुं योगमायाबलोदयम् ॥ ३५ ॥
तथापि कीर्तयाम्यङ्ग यथामति यथाश्रुतम् ।
कीर्तिं हरेः स्वां सत्कर्तुं गिरमन्याभिधासतीम् ॥ ३६ ॥
एकान्तलाभं वचसो नु पुंसां
सुश्लोकमौलेर्गुणवादमाहुः ।
श्रुतेश्च विद्वद्भिरुपाकृतायां
कथासुधायां उपसम्प्रयोगम् ॥ ३७ ॥
आत्मनोऽवसितो वत्स महिमा कविनाऽऽदिना ।
संवत्सरसहस्रान्ते धिया योगविपक्वया ॥ ३८ ॥
अतो भगवतो माया मायिनामपि मोहिनी ।
यत्स्वयं चात्मवर्त्मात्मा न वेद किमुतापरे ॥ ३९ ॥
यतोऽप्राप्य न्यवर्तन्त वाचश्च मनसा सह ।
अहं चान्य इमे देवाः तस्मै भगवते नमः ॥ ४० ॥
विदुरजी ! यह विराट् पुरुष काल, कर्म और स्वभावशक्तिसे युक्त भगवान्की योगमायाके प्रभावको प्रकट करनेवाला है। इसके स्वरूपका पूरा-पूरा वर्णन करनेका कौन साहस कर सकता है ॥ ३५ ॥ तथापि प्यारे विदुरजी ! अन्य व्यावहारिक चर्चाओंसे अपवित्र हुई अपनी वाणीको पवित्र करनेके लिये, जैसी मेरी बुद्धि है और जैसा मैंने गुरुमुखसे सुना है वैसा, श्रीहरिका सुयश वर्णन करता हूँ ॥ ३६ ॥ महापुरुषोंका मत है कि पुण्यश्लोकशिरोमणि श्रीहरिके गुणोंका गान करना ही मनुष्योंकी वाणीका तथा विद्वानोंके मुखसे भगवत्कथामृतका पान करना ही उनके कानोंका सबसे बड़ा लाभ है ॥ ३७ ॥ वत्स ! हम ही नहीं, आदिकवि श्रीब्रह्माजीने एक हजार दिव्य वर्षोंतक अपनी योगपरिपक्व बुद्धिसे विचार किया; तो भी क्या वे भगवान्की अमित महिमाका पार पा सके ? ॥ ३८ ॥ अत: भगवान् की माया बड़े-बड़े मायावियोंको भी मोहित कर देनेवाली है। उसकी चक्कर में डालनेवाली चाल अनन्त है; अतएव स्वयं भगवान् भी उसकी थाह नहीं लगा सकते, फिर दूसरों की तो बात ही क्या है ॥ ३९ ॥ जहाँ न पहुँचकर मनके सहित वाणी भी लौट आती है तथा जिनका पार पाने में अहंकार के अभिमानी रुद्र तथा अन्य इन्द्रियाधिष्ठाता देवता भी समर्थ नहीं हैं, उन श्रीभगवान् को हम नमस्कार करते हैं ॥ ४० ॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
🌹💖🥀 जय श्रीकृष्ण 🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे
हे नाथ नारायण वासुदेव ‼️
नारायण नारायण नारायण नारायण