बुधवार, 4 दिसंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-सातवां अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

विदुरजीके प्रश्न 

श्रीशुक उवाच -
एवं ब्रुवाणं मैत्रेयं द्वैपायनसुतो बुधः ।
प्रीणयन्निव भारत्या विदुरः प्रत्यभाषत ॥ १ ॥

विदुर उवाच ।
ब्रह्मन् कथं भगवतः चिन्मात्रस्याविकारिणः ।
लीलया चापि युज्येरन् निर्गुणस्य गुणाः क्रियाः ॥ २ ॥
क्रीडायां उद्यमोऽर्भस्य कामश्चिक्रीडिषान्यतः ।
स्वतस्तृप्तस्य च कथं निवृत्तस्य सदान्यतः ॥ ३ ॥
अस्राक्षीत् भगवान् विश्वं गुणमय्याऽऽत्ममायया ।
तया संस्थापयत्येतद् भूयः प्रत्यपिधास्यति ॥ ४ ॥
देशतः कालतो योऽसौ अवस्थातः स्वतोऽन्यतः ।
अविलुप्तावबोधात्मा स युज्येताजया कथम् ॥ ५ ॥
भगवानेक एवैष सर्वक्षेत्रेष्ववस्थितः ।
अमुष्य दुर्भगत्वं वा क्लेशो वा कर्मभिः कुतः ॥ ६ ॥
एतस्मिन्मे मनो विद्वन् खिद्यतेऽज्ञानसङ्कटे ।
तन्नः पराणुद विभो कश्मलं मानसं महत् ॥ ७ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—मैत्रेयजी का यह भाषण सुनकर बुद्धिमान् व्यासनन्दन विदुरजी ने उन्हें अपनी वाणी से प्रसन्न करते हुए कहा ॥ १ ॥
विदुरजी ने पूछा—ब्रह्मन् ! भगवान्‌ तो शुद्ध बोधस्वरूप, निर्विकार और निर्गुण हैं; उनके साथ लीला से भी गुण और क्रिया का सम्बन्ध कैसे हो सकता है ? ॥ २ ॥ बालक में तो कामना और दूसरों के साथ खेलने की इच्छा रहती है, इसी से वह खेलने के लिये प्रयत्न करता है; किन्तु भगवान्‌ तो स्वत: नित्यतृप्त—पूर्णकाम और सर्वदा असङ्ग हैं, वे क्रीडा के लिये भी क्यों सङ्कल्प करेंगे ॥ ३ ॥ भगवान्‌ ने अपनी गुणमयी माया से जगत् की रचना की है, उसीसे वे इसका पालन करते हैं और फिर उसी से संहार भी करेंगे ॥ ४ ॥ जिनके ज्ञान का देश, काल अथवा अवस्था से, अपने-आप या किसी दूसरे निमित्त से भी कभी लोप नहीं होता, उनका मायाके साथ किस प्रकार संयोग हो सकता है ॥ ५ ॥ एकमात्र ये भगवान्‌ ही समस्त क्षेत्रों में  उनके साक्षीरूप से स्थित हैं, फिर इन्हें दुर्भाग्य या किसी प्रकारके कर्मजनित क्लेशकी प्राप्ति कैसे हो सकती है ॥ ६ ॥ भगवन् ! इस अज्ञानसङ्कट में पडक़र मेरा मन बड़ा खिन्न हो रहा है, आप मेरे मनके इस महान् मोह को कृपा करके दूर कीजिये ॥ ७ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


1 टिप्पणी:

  1. 🌺💖💐ॐ श्रीपरमात्मने नमः
    ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
    श्रीकृष्ण गोविंद हरे मुरारे
    हे नाथ नारायण वासुदेव
    नारायण नारायण नारायण नारायण

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