॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
विदुरजीके प्रश्न
श्रीशुक उवाच –
स इत्थं चोदितः क्षत्त्रा तत्त्वजिज्ञासुना मुनिः ।
प्रत्याह भगवच्चित्तः स्मयन्निव गतस्मयः ॥ ८ ॥
मैत्रेय उवाच –
सेयं भगवतो माया यन्नयेन विरुध्यते ।
ईश्वरस्य विमुक्तस्य कार्पण्यमुत बन्धनम् ॥ ९ ॥
यदर्थेन विनामुष्य पुंस आत्मविपर्ययः ।
प्रतीयत उपद्रष्टुः स्वशिरश्छेदनादिकः ॥ १० ॥
यथा जले चन्द्रमसः कम्पादिस्तत्कृतो गुणः ।
दृश्यतेऽसन्नपि द्रष्टुः आत्मनोऽनात्मनो गुणः ॥ ११ ॥
स वै निवृत्तिधर्मेण वासुदेवानुकम्पया ।
भगवद्भिक्तियोगेन तिरोधत्ते शनैरिह ॥ १२ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—तत्त्वजिज्ञासु विदुरजी की यह प्रेरणा प्राप्तकर अहंकारहीन श्रीमैत्रेयजी ने भगवान् का स्मरण करते हुए मुसकराते हुए कहा ॥ ८ ॥
श्रीमैत्रेयजीने कहा—जो आत्मा सब का स्वामी और सर्वथा मुक्तस्वरूप है, वही दीनता और बन्धन को प्राप्त हो—यह बात युक्तिविरुद्ध अवश्य है; किन्तु वस्तुत: यही तो भगवान् की माया है ॥ ९ ॥ जिस प्रकार स्वप्न देखने वाले पुरुष को अपना सिर कटना आदि व्यापार न होने पर भी अज्ञान के कारण सत्यवत् भासते हैं, उसी प्रकार इस जीव को बन्धनादि न होते हुए भी अज्ञानवश भास रहे हैं ॥ १० ॥ यदि यह कहा जाय कि फिर ईश्वर में इनकी प्रतीति क्यों नहीं होती, तो इसका उत्तर यह है कि जिस प्रकार जलमें होनेवाली कम्प आदि क्रिया जलमें दीखनेवाले चन्द्रमाके प्रतिबिम्बमें न होनेपर भी भासती है, आकाशस्थ चन्द्रमामें नहीं, उसी प्रकार देहाभिमानी जीवमें ही देहके मिथ्या धर्मोंकी प्रतीति होती है, परमात्मा में नहीं ॥ ११ ॥
निष्कामभावसे धर्मोंका आचरण करनेपर भगवत्कृपासे प्राप्त हुए भक्ति-योगके द्वारा यह प्रतीति धीरे-धीरे निवृत्त हो जाती है ॥ १२ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
🌹💖🥀 जय श्रीकृष्ण 🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे
हे नाथ नारायण वासुदेव !!
हरि: शरणम् हरि:शरणम्
हरि: शरणम् !!
श्रीकृष्णः शरणं मम्
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