॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
विदुरजीके प्रश्र
यदेन्द्रियोपरामोऽथ द्रष्ट्रात्मनि परे हरौ ।
विलीयन्ते तदा क्लेशाः संसुप्तस्येव कृत्स्नशः ॥ १३ ॥
अशेषसङ्क्लेशशमं विधत्ते
गुणानुवादश्रवणं मुरारेः ।
किं वा पुनस्तच्चरणारविन्द
परागसेवारतिरात्मलब्धा ॥ १४ ॥
विदुर उवाच -
सञ्छिन्नः संशयो मह्यं तव सूक्तासिना विभो ।
उभयत्रापि भगवन् मनो मे सम्प्रधावति ॥ १५ ॥
साध्वेतद् व्याहृतं विद्वन् आत्ममायायनं हरेः ।
आभात्यपार्थं निर्मूलं विश्वमूलं न यद्ब हिः ॥ १६ ॥
जिस समय समस्त इन्द्रियाँ विषयों से हटकर साक्षी परमात्मा श्रीहरि में निश्चलभावसे स्थित हो जाती हैं, उस समय गाढ़ निद्रा में सोये हुए मनुष्य के समान जीव के राग-द्वेषादि सारे क्लेश सर्वथा नष्ट हो जाते हैं ॥ १३ ॥ श्रीकृष्ण के गुणों का वर्णन एवं श्रवण अशेष दु:खराशि को शान्त कर देता है; फिर यदि हमारे हृदय में उनके चरणकमल की रज के सेवन का प्रेम जग पड़े, तब तो कहना ही क्या है ? ॥ १४ ॥
विदुरजीने कहा—भगवन् ! आपके युक्तियुक्त वचनोंकी तलवारसे मेरे सन्देह छिन्न-भिन्न हो गये हैं। अब मेरा चित्त भगवान् की स्वतन्त्रता और जीव की परतन्त्रता—दोनों ही विषयों में खूब प्रवेश कर रहा है ॥ १५ ॥ विद्वन् ! आपने यह बात बहुत ठीक कही कि जीवको जो क्लेशादिकी प्रतीति हो रही है, उसका आधार केवल भगवान् की माया ही है। वह क्लेश मिथ्या एवं निर्मूल ही है; क्योंकि इस विश्वका मूल कारण ही मायाके अतिरिक्त और कुछ नहीं है ॥ १६ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
🥀💟💖🌹 हे नाथ नारायण वासुदेव ‼️🙏🙏 ॐ श्रीपरमात्मने नमः 🙏 ॐ नमो भगवते वासुदेवाय 🙏 जय हो मेरे राधा रमण बिहारी लाल जी महाराज 🙏🥀
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