॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - नवाँ अध्याय..(पोस्ट१३)
ब्रह्माजी द्वारा भगवान् की स्तुति
नानाकर्मवितानेन प्रजा बह्वीः सिसृक्षतः ।
नात्मावसीदत्यस्मिन् ते वर्षीयान् मदनुग्रहः ॥ ३४ ॥
ऋषिमाद्यं न बध्नाति पापीयान् त्वां रजोगुणः ।
यन्मनो मयि निर्बद्धं प्रजाः संसृजतोऽपि ते ॥ ३५ ॥
ज्ञातोऽहं भवता त्वद्य दुर्विज्ञेयोऽपि देहिनाम् ।
यन्मां त्वं मन्यसेऽयुक्तं भूतेन्द्रियगुणात्मभिः ॥ ३६ ॥
तुभ्यं मद्विचिकित्सायां आत्मा मे दर्शितोऽबहिः ।
नालेन सलिले मूलं पुष्करस्य विचिन्वतः ॥ ३७ ॥
ब्रह्माजी नाना प्रकार के कर्मसंस्कारों के अनुसार अनेक प्रकार की जीवसृष्टि को रचने की इच्छा होनेपर भी तुम्हारा चित्त मोहित नहीं होता, यह मेरी अतिशय कृपा का ही फल है ॥ ३४ ॥ तुम सबसे पहले मन्त्रद्रष्टा हो। प्रजा उत्पन्न करते समय भी तुम्हारा मन मुझमें ही लगा रहता है, इसीसे पापमय रजोगुण तुमको बाँध नहीं पाता ॥ ३५ ॥ तुम मुझे भूत, इन्द्रिय, गुण और अन्त:करणसे रहित समझते हो; इससे जान पड़ता है कि यद्यपि देहधारी जीवोंको मेरा ज्ञान होना बहुत कठिन है, तथापि तुमने मुझे जान लिया है ॥ ३६ ॥ ‘मेरा आश्रय कोई है या नहीं’ इस सन्देहसे तुम कमलनाल के द्वारा जलमें उसका मूल खोज रहे थे, सो मैंने तुम्हें अपना यह स्वरूप अन्त:करणमें ही दिखलाया है ॥ ३७ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
🌹❤️💐🥀जय श्रीहरि:🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे
हे नाथ नारायण वासुदेव
नारायण नारायण नारायण नारायण