॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)
मन्वन्तरादि कालविभाग का वर्णन
तमोमात्रामुपादाय प्रतिसंरुद्धविक्रमः ।
कालेनानुगताशेष आस्ते तूष्णीं दिनात्यये ॥ २७ ॥
तमेवान्वपि धीयन्ते लोका भूरादयस्त्रयः ।
निशायां अनुवृत्तायां निर्मुक्तशशिभास्करम् ॥ २८ ॥
त्रिलोक्यां दह्यमानायां शक्त्या सङ्कर्षणाग्निना ।
यान्त्यूष्मणा महर्लोकात् जनं भृग्वादयोऽर्दिताः ॥ २९ ॥
तावत् त्रिभुवनं सद्यः कल्पान्तैधितसिन्धवः ।
प्लावयन्त्युत्कटाटोप चण्डवातेरितोर्मयः ॥ ३० ॥
अन्तः स तस्मिन् सलिल आस्तेऽनन्तासनो हरिः ।
योगनिद्रानिमीलाक्षः स्तूयमानो जनालयैः ॥ ३१ ॥
एवंविधैरहोरात्रैः कालगत्योपलक्षितैः ।
अपक्षितमिवास्यापि परमायुर्वयःशतम् ॥ ३२ ॥
कालक्रमसे जब ब्रह्माजी का दिन बीत जाता है, तब वे तमोगुण के सम्पर्क को स्वीकार कर अपने सृष्टिरचनारूप पौरुष को स्थगित करके निश्चेष्टभाव से स्थित हो जाते हैं ॥ २७ ॥ उस समय सारा विश्व उन्हीं में लीन हो जाता है। जब सूर्य और चन्द्रमादि से रहित वह प्रलयरात्रि आती है, तब वे भू:, भुव:, स्व:—तीनों लोक उन्हीं ब्रह्माजीके शरीरमें छिप जाते हैं ॥ २८ ॥ उस अवसर पर तीनों लोक शेषजी के मुख से निकली हुई अग्रिरूप भगवान् की शक्ति से जलने लगते हैं। इसलिये उसके तापसे व्याकुल होकर भृगु आदि मुनीश्वरगण महर्लोक से जनलोक को चले जाते हैं ॥ २९ ॥ इतनेमें ही सातों समुद्र प्रलयकालके प्रचण्ड पवनसे उमडक़र अपनी उछलती हुई उत्ताल तरङ्गोंसे त्रिलोकीको डुबो देते हैं ॥ ३० ॥ तब उस जलके भीतर भगवान् शेषशायी योगनिद्रासे नेत्र मूँदकर शयन करते हैं। उस समय जनलोकनिवासी मुनिगण उनकी स्तुति किया करते हैं ॥ ३१ ॥ इस प्रकार कालकी गतिसे एक-एक सहस्र चतुर्युगके रूपमें प्रतीत होनेवाले दिन-रातके हेर-फेरसे ब्रह्माजीकी सौ वर्षकी परमायु भी बीती हुई-सी दिखायी देती है ॥ ३२ ॥
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नारायण नारायण नारायण नारायण