॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१३)
जय-विजय को सनकादि का शाप
कृत्स्नप्रसादसुमुखं स्पृहणीयधाम ।
स्नेहावलोककलया हृदि संस्पृशन्तम् ।
श्यामे पृथावुरसि शोभितया श्रिया स्वः ।
चूडामणिं सुभगयन्तमिवात्मधिष्ण्यम् ॥ ३९ ॥
पीतांशुके पृथुनितम्बिनि विस्फुरन्त्या ।
काञ्च्यालिभिर्विरुतया वनमालया च ।
वल्गुप्रकोष्ठवलयं विनतासुतांसे ।
विन्यस्तहस्तमितरेण धुनानमब्जम् ॥ ४० ॥
विद्युत्क्षिपन् मकरकुण्डलमण्डनार्ह ।
गण्डस्थलोन्नसमुखं मणिमत्किरीटम् ।
दोर्दण्डषण्डविवरे हरता परार्ध्य ।
हारेण कन्धरगतेन च कौस्तुभेन ॥ ४१ ॥
प्रभु समस्त सद्गुणोंके आश्रय हैं, उनकी सौम्य मुखमुद्रा को देखकर जान पड़ता था मानो वे सभी पर अनवरत कृपासुधा की वर्षा कर रहे हैं। अपनी स्नेहमयी चितवन से वे भक्तों का हृदय स्पर्श कर रहे थे तथा उनके सुविशाल श्याम वक्ष:स्थलपर स्वर्णरेखा के रूप में जो साक्षात् लक्ष्मी विराजमान थीं, उनसे मानो वे समस्त दिव्यलोकों के चूडामणि वैकुण्ठधाम को सुशोभित कर रहे थे ॥ ३९ ॥ उनके पीताम्बरमण्डित विशाल नितम्बों पर झिलमिलाती हुई करधनी और गले में भ्रमरों से मुखरित वनमाला विराज रही थी; तथा वे कलाइयों में सुन्दर कंगन पहने अपना एक हाथ गरुडज़ी के कंधेपर रख दूसरे से कमलका पुष्प घुमा रहे थे ॥ ४० ॥ उनके अमोल कपोल बिजली की प्रभा को भी लजानेवाले मकराकृति कुण्डलों की शोभा बढ़ा रहे थे, उभरी हुई सुघड़ नासिका थी, बड़ा ही सुन्दर मुख था, सिरपर मणिमय मुकुट विराजमान था तथा चारों भुजाओं के बीच महामूल्यवान् मनोहर हार की और गले में कौस्तुभमणि की अपूर्व शोभा थी ॥ ४१ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
🌹💖💐🥀जय श्रीहरि:🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीकृष्ण गोविंद हरे मुरारे
हे नाथ नारायण वासुदेव: !!
श्रीमन्न् नारायण गोविंद नारायण
हरि: नारायण !!;