मंगलवार, 4 मार्च 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१४)

जय-विजय को सनकादि का शाप

अत्रोपसृष्टमिति चोत्स्मितमिन्दिरायाः ।
    स्वानां धिया विरचितं बहुसौष्ठवाढ्यम् ।
मह्यं भवस्य भवतां च भजन्तमङ्गं ।
    नेमुर्निरीक्ष्य न वितृप्तदृशो मुदा कैः ॥ ४२ ॥
तस्यारविन्दनयनस्य पदारविन्द ।
    किञ्जल्कमिश्रतुलसीमकरन्दवायुः ।
अन्तर्गतः स्वविवरेण चकार तेषां ।
    सङ्क्षोभमक्षरजुषामपि चित्ततन्वोः ॥ ४३ ॥

भगवान्‌का श्रीविग्रह बड़ा ही सौन्दर्यशाली था। उसे देखकर भक्तोंके मनमें ऐसा वितर्क होता था कि इसके सामने लक्ष्मीजी का सौन्दर्याभिमान भी गलित हो गया है। ब्रह्माजी कहते हैं—देवताओ ! इस प्रकार मेरे, महादेवजी के और तुम्हारे लिये परम सुन्दर विग्रह धारण करने वाले श्रीहरि को देखकर सनकादि मुनीश्वरों ने उन्हें सिर झुकाकर प्रणाम किया। उस समय उनकी अद्भुत छवि को निहारते-निहारते उनके नेत्र तृप्त नहीं होते थे ॥ ४२ ॥
सनकादि मुनीश्वर निरन्तर ब्रह्मानन्द में निमग्न रहा करते थे। किन्तु जिस समय भगवान्‌ कमलनयन के चरणारविन्दमकरन्द से मिली हुई तुलसीमञ्जरी के गन्ध से सुवासित वायु ने नासिका- रन्ध्रोंके द्वारा उनके अन्त:करणमें प्रवेश किया, उस समय वे अपने शरीरको सँभाल न सके और उस दिव्य गन्ध ने उनके मनमें भी खलबली पैदा कर दी ॥ ४३ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


1 टिप्पणी:

  1. 🌹💖🥀 जय श्रीहरि:🙏🙏
    ॐ श्रीपरमात्मने नमः
    हे गोविंद हे गोपाल
    हे करुणामय दीनदयाल
    हे नाथ नारायण वासुदेव: !!
    ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

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