॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१५)
जय-विजय को सनकादि का शाप
ते वा अमुष्य वदनासितपद्मकोशम् ।
उद्वीक्ष्य सुन्दरतराधरकुन्दहासम् ।
लब्धाशिषः पुनरवेक्ष्य तदीयमङ्घ्रि ।
द्वन्द्वं नखारुणमणिश्रयणं निदध्युः ॥ ४४ ॥
पुंसां गतिं मृगयतामिह योगमार्गैः ।
ध्यानास्पदं बहुमतं नयनाभिरामम् ।
पौंस्नं वपुर्दर्शयानमनन्यसिद्धैः ।
औत्पत्तिकैः समगृणन्युतमष्टभोगैः ॥ ४५ ॥
भगवान् का मुख नीलकमल के समान था, अति सुन्दर अधर और कुन्दकली के समान मनोहर हाससे उसकी शोभा और भी बढ़ गयी थी। उसकी झाँकी करके वे कृतकृत्य हो गये। और फिर पद्मरागके समान लाल-लाल नखों से सुशोभित उनके चरणकमल देखकर वे उन्हीं का ध्यान करने लगे ॥ ४४ ॥ इसके पश्चात् वे मुनिगण अन्य साधनों से सिद्ध न होनेवाली, स्वाभाविक अष्टसिद्धियों से सम्पन्न श्रीहरि की स्तुति करने लगे—जो योगमार्गद्वारा मोक्षपद की खोज करनेवाले पुरुषों के लिये उनके ध्यान का विषय, अत्यन्त आदरणीय और नयनानन्द की वृद्धि करनेवाला पुरुषरूप प्रकट करते हैं ॥ ४५ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
🌹💖🥀 जय श्रीकृष्ण🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीकृष्ण गोविंद हरे मुरारे
हे नाथ नारायण वासुदेव: !!
नारायण नारायण नारायण नारायण