॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)
ब्रह्माजीकी रची हुई अनेक प्रकारकी सृष्टिका वर्णन
तां क्वणच्चरणाम्भोजां मदविह्वल लोचनाम् ।
काञ्चीकलापविलसद् दुकूलत् छन्न रोधसम् ॥ २९ ॥
अन्योन्यश्लेषयोत्तुङ्ग निरन्तरपयोधराम् ।
सुनासां सुद्विजां स्निग्ध हासलीलावलोकनाम् ॥ ३० ॥
गूहन्तीं व्रीडयात्मानं नीलालकवरूथिनीम् ।
उपलभ्यासुरा धर्म सर्वे सम्मुमुहुः स्त्रियम् ॥ ३१ ॥
अहो रूपमहो धैर्यं अहो अस्या नवं वयः ।
मध्ये कामयमानानां अकामेव विसर्पति ॥ ३२ ॥
वितर्कयन्तो बहुधा तां सन्ध्यां प्रमदाकृतिम् ।
अभिसम्भाव्य विश्रम्भात् पर्यपृच्छन् कुमेधसः ॥ ३३ ॥
कासि कस्यासि रम्भोरु को वार्थस्तेऽत्र भामिनि ।
रूपद्रविणपण्येन दुर्भगान्नो विबाधसे ॥ ३४ ॥
या वा काचित्त्वमबले दिष्ट्या सन्दर्शनं तव ।
उत्सुनोषीक्षमाणानां कन्दुकक्रीडया मनः ॥ ३५ ॥
नैकत्र ते जयति शालिनि पादपद्मं
घ्नन्त्या मुहुः करतलेन पतत्पतङ्गम् ।
मध्यं विषीदति बृहत्स्तनभारभीतं
शान्तेव दृष्टिरमला सुशिखासमूहः ॥ ३६ ॥
इति सायन्तनीं सन्ध्यां असुराः प्रमदायतीम् ।
प्रलोभयन्तीं जगृहुः मत्वा मूढधियः स्त्रियम् ॥ ३७ ॥
(ब्रह्माजीका छोड़ा हुआ वह शरीर एक सुन्दरी स्त्री—संध्यादेवीके रूपमें परिणत हो गया।) उसके चरणकमलों के पायजेब झङ्कृत हो रहे थे। उसकी आँखें मतवाली हो रही थीं और कमर करधनी की लड़ों से सुशोभित सजीली साड़ी से ढकी हुई थी ॥ २९ ॥ उसके उभरे हुए स्तन इस प्रकार एक दूसरेसे सटे हुए थे कि उनके बीचमें कोई अन्तर ही नहीं रह गया था। उसकी नासिका और दन्तावली बड़ी ही सुघड़ थी तथा वह मधुर-मधुर मुसकराती हुई असुरोंकी ओर हाव-भावपूर्ण दृष्टिसे देख रही थी ॥ ३० ॥ वह नीली-नीली अलकावलीसे सुशोभित सुकुमारी मानो लज्जाके मारे अपने अञ्चलमें ही सिमिटी जाती थी। विदुरजी ! उस सुन्दरीको देखकर सब-के-सब असुर मोहित हो गये ॥ ३१ ॥ ‘अहो ! इसका कैसा विचित्र रूप, कैसा अलौकिक धैर्य और कैसी नयी अवस्था है। देखो, हम कामपीडि़तोंके बीचमें यह कैसी बेपरवाह-सी विचर रही है’ ॥ ३२ ॥
इस प्रकार उन कुबुद्धि दैत्योंने स्त्रीरूपिणी संध्याके विषयमें तरह-तरहके तर्क-वितर्क करके फिर उसका बहुत आदर करते हुए प्रेमपूर्वक पूछा— ॥ ३३ ॥ ‘सुन्दरि ! तुम कौन हो और किसकी पुत्री हो ? भामिनि ! यहाँ तुम्हारे आनेका क्या प्रयोजन है ? तुम अपने अनूप रूपका यह बेमोल सौदा दिखाकर हम अभागोंको क्यों तरसा रही हो ॥ ३४ ॥ अबले ! तुम कोई भी क्यों न हो, हमें तुम्हारा दर्शन हुआ—यह बड़े सौभाग्यकी बात है। तुम अपनी गेंद उछाल-उछालकर तो हम दर्शकोंके मनको मथे डालती हो ॥ ३५ ॥ सुन्दरि ! जब तुम उछलती हुई गेंदपर अपनी हथेलीकी थपकी मारती हो, तब तुम्हारा चरण-कमल एक जगह नहीं ठहरता; तुम्हारा कटिप्रदेश स्थूल स्तनोंके भारसे थक-सा जाता है और तुम्हारी निर्मल दृष्टिसे भी थकावट झलकने लगती है। अहो ! तुम्हारा केशपाश कैसा सुन्दर है’ ॥ ३६ ॥ इस प्रकार स्त्रीरूपसे प्रकट हुई उस सायंकालीन सन्ध्याने उन्हें अत्यन्त कामासक्त कर दिया और उन मूढ़ोंने उसे कोई रमणीरत्न समझकर ग्रहण कर लिया ॥ ३७ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
नारायण नारायण नारायण नारायण