॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)
देवहूतिको तत्त्वज्ञान एवं मोक्षपदकी प्राप्ति
ब्रह्मण्यवस्थितमतिः भगवति आत्मसंश्रये ।
निवृत्तजीवापत्तित्वात् क्षीणक्लेशाऽऽप्त निर्वृतिः ॥ २६ ॥
नित्यारूढसमाधित्वात् परावृत्तगुणभ्रमा ।
न सस्मार तदाऽऽत्मानं स्वप्ने दृष्टमिवोत्थितः ॥ २७ ॥
तद्देहः परतः पोषोऽपि अकृशश्चाध्यसम्भवात् ।
बभौ मलैरवच्छन्नः सधूम इव पावकः ॥ २८ ॥
स्वाङ्गं तपोयोगमयं मुक्तकेशं गताम्बरम् ।
दैवगुप्तं न बुबुधे वासुदेवप्रविष्टधीः ॥ २९ ॥
इस प्रकार जीव के अधिष्ठानभूत परब्रह्म श्रीभगवान् में ही बुद्धिकी स्थिति हो जानेसे उनका (देवहूतिजी का) जीवभाव निवृत्त हो गया और वे समस्त क्लेशोंसे मुक्त होकर परमानन्दमें निमग्न हो गयीं ॥ २६ ॥ अब निरन्तर समाधिस्थ रहनेके कारण उनकी विषयोंके सत्यत्व की भ्रान्ति मिट गयी और उन्हें अपने शरीरकी भी सुधि न रही—जैसे जागे हुए पुरुषको अपने स्वप्नमें देखे हुए शरीरकी नहीं रहती ॥ २७ ॥ उनके शरीरका पोषण भी दूसरोंके द्वारा ही होता था। किन्तु किसी प्रकारका मानसिक क्लेश न होनेके कारण वह दुर्बल नहीं हुआ। उसका तेज और भी निखर गया और वह मैलके कारण धूमयुक्त अग्नि के समान सुशोभित होने लगा। उनके बाल बिथुर गये थे और वस्त्र भी गिर गया था; तथापि निरन्तर श्रीभगवान् में ही चित्त लगा रहनेके कारण उन्हें अपने तपोयोगमय शरीर की कुछ भी सुधि नहीं थी, केवल प्रारब्ध ही उसकी रक्षा करता था ॥ २८-२९ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
🌹🩷🥀 ॐ श्रीपरमात्मने नमः
जवाब देंहटाएंॐ नमो भगवते वासुदेवाय
नारायण नारायण नारायण नारायण हे नाथ नारायण वासुदेव: !!🙏🙏