रविवार, 7 सितंबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - तीसरा अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध - तीसरा अध्याय..(पोस्ट०२)

सती का पिता के यहाँ यज्ञोत्सव में जाने के लिये आग्रह करना

सत्युवाच -
प्रजापतेस्ते श्वशुरस्य साम्प्रतं
     निर्यापितो यज्ञमहोत्सवः किल ।
वयं च तत्राभिसराम वाम ते
     यद्यर्थितामी विबुधा व्रजन्ति हि ॥ ८ ॥
तस्मिन् भगिन्यो मम भर्तृभिः स्वकैः
     ध्रुवं गमिष्यन्ति सुहृद्दिदृक्षवः ।
अहं च तस्मिन् भवताभिकामये
     सहोपनीतं परिबर्हमर्हितुम् ॥ ९ ॥
तत्र स्वसॄर्मे ननु भर्तृसम्मिता
     मातृष्वसॄः क्लिन्नधियं च मातरम् ।
द्रक्ष्ये चिरोत्कण्ठमना महर्षिभिः
     उन्नीयमानं च मृडाध्वरध्वजम् ॥ १० ॥
त्वय्येतदाश्चर्यमजात्ममायया
     विनिर्मितं भाति गुणत्रयात्मकम् ।
तथाप्यहं योषिदतत्त्वविच्च ते
     दीना दिदृक्षे भव मे भवक्षितिम् ॥ ११ ॥
पश्य प्रयान्तीरभवान्ययोषितो
     ऽप्यलङ्‌कृताः कान्तसखा वरूथशः ।
यासां व्रजद्‌भिः शितिकण्ठ मण्डितं
     नभो विमानैः कलहंसपाण्डुभिः ॥ १२ ॥
कथं सुतायाः पितृगेहकौतुकं
     निशम्य देहः सुरवर्य नेङ्‌गते ।
अनाहुता अप्यभियन्ति सौहृदं
     भर्तुर्गुरोर्देहकृतश्च केतनम् ॥ १३ ॥
तन्मे प्रसीदेदममर्त्य वाञ्छितं
     कर्तुं भवान्कारुणिको बतार्हति ।
त्वयात्मनोऽर्धेऽहमदभ्रचक्षुषा
     निरूपिता मानुगृहाण याचितः ॥ १४ ॥

सतीने कहा—वामदेव ! सुना है, इस समय आपके ससुर दक्षप्रजापति के यहाँ बड़ा भारी यज्ञोत्सव हो रहा है। देखिये, ये सब देवता वहीं जा रहे हैं; यदि आपकी इच्छा हो तो हम भी चलें ॥ ८ ॥ इस समय अपने आत्मीयों से मिलने के लिये मेरी बहिनें भी अपने-अपने पतियोंके सहित वहाँ अवश्य आयेंगी। मैं भी चाहती हूँ कि आपके साथ वहाँ जाकर माता-पिता के दिये हुए गहने, कपड़े आदि उपहार स्वीकार करूँ ॥ ९ ॥ वहाँ अपने पतियों से सम्मानित बहिनों, मौसियों और स्नेहार्द्रहृदया जननी को देखनेके लिये मेरा मन बहुत दिनोंसे उत्सुक है। कल्याणमय ! इसके सिवा वहाँ महर्षियों का रचा हुआ श्रेष्ठ यज्ञ भी देखनेको मिलेगा ॥ १० ॥ अजन्मा प्रभो ! आप जगत् की  उत्पत्ति के हेतु हैं। आपकी मायासे रचा हुआ यह परम आश्चर्यमय त्रिगुणात्मक जगत् आपहीमें भास रहा है ॥ किन्तु मैं तो स्त्रीस्वभाव होनेके कारण आपके तत्त्वसे अनभिज्ञ और बहुत दीन हूँ। इसलिये इस समय अपनी जन्मभूमि देखनेको बहुत उत्सुक हो रही हूँ ॥ ११ ॥ जन्मरहित नीलकण्ठ ! देखिये—इनमें कितनी ही स्त्रियाँ तो ऐसी हैं, जिनका दक्षसे कोई सम्बन्ध भी नहीं है। फिर भी वे अपने-अपने पतियोंके सहित खूब सज-धजकर झुंड-की-झुंड वहाँ जा रही हैं। वहाँ जानेवाली इन देवाङ्गनाओंके राजहंसके समान श्वेत विमानोंसे आकाशमण्डल कैसा सुशोभित हो रहा है ॥ १२ ॥ सुरश्रेष्ठ ! ऐसी अवस्थामें अपने पिताके यहाँ उत्सवका समाचार पाकर उसकी बेटीका शरीर उसमें सम्मिलित होनेके लिये क्यों न छटपटायेगा। पति, गुरु और माता-पिता आदि सुहृदोंके यहाँ तो बिना बुलाये भी जा सकते हैं ॥ १३ ॥ अत: देव ! आप मुझपर प्रसन्न हों; आपको मेरी यह इच्छा अवश्य पूर्ण करनी चाहिये; आप बड़े करुणामय हैं, तभी तो परम ज्ञानी होकर भी आपने मुझे अपने आधे अङ्गमें स्थान दिया है। अब मेरी इस याचनापर ध्यान देकर मुझे अनुगृहीत कीजिये ॥ १४ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


1 टिप्पणी:

  1. 🌹🌹🌹जय प्रभु हरि: हर🙏
    ॐ श्रीपरमात्मने नमः
    ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
    नारायण नारायण नारायण नारायण

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