॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०२)
ब्रह्मादि देवताओंका कैलास जाकर श्रीमहादेवजीको मनाना
नाहं न यज्ञो न च यूयमन्ये
ये देहभाजो मुनयश्च तत्त्वम् ।
विदुः प्रमाणं बलवीर्ययोर्वा
यस्यात्मतन्त्रस्य क उपायं विधित्सेत् ॥ ७ ॥
स इत्थमादिश्य सुरानजस्तैः
समन्वितः पितृभिः सप्रजेशैः ।
ययौ स्वधिष्ण्यान्निलयं पुरद्विषः
कैलासमद्रिप्रवरं प्रियं प्रभोः ॥ ८ ॥
जन्मौषधितपोमन्त्र योगसिद्धैर्नरेतरैः ।
जुष्टं किन्नरगन्धर्वैः अप्सरोभिर्वृतं सदा ॥ ९ ॥
नानामणिमयैः शृङ्गैः नानाधातुविचित्रितैः ।
नानाद्रुमलतागुल्मैः नानामृगगणावृतैः ॥ १० ॥
नानामलप्रस्रवणैः नानाकन्दरसानुभिः ।
रमणं विहरन्तीनां रमणैः सिद्धयोषिताम् ॥ ११ ॥
मयूरकेकाभिरुतं मदान्धालिविमूर्च्छितम् ।
प्लावितै रक्तकण्ठानां कूजितैश्च पतत्त्रिणाम् ॥ १२ ॥
आह्वयन्तं इवोद्धस्तैः द्विजान् कामदुघैर्द्रुमैः ।
व्रजन्तमिव मातङ्गैः गृणन्तमिव निर्झरैः ॥ १३ ॥
मन्दारैः पारिजातैश्च सरलैश्चोपशोभितम् ।
तमालैः शालतालैश्च कोविदारासनार्जुनैः ॥ १४ ॥
चूतैः कदम्बैर्नीपैश्च नागपुन्नाग चम्पकैः ।
पाटलाशोकबकुलैः कुन्दैः कुरबकैरपि ॥ १५ ॥
स्वर्णार्णशतपत्रैश्च वररेणुकजातिभिः ।
कुब्जकैर्मल्लिकाभिश्च माधवीभिश्च मण्डितम् ॥ १६ ॥
पनसोदुम्बराश्वत्थ प्लक्ष न्यग्रोधहिङ्गुभिः ।
भूर्जैरोषधिभिः पूगै राजपूगैश्च जम्बुभिः ॥ १७ ॥
खर्जूराम्रातकाम्राद्यैः प्रियाल मधुकेङ्गुदैः ।
द्रुमजातिभिरन्यैश्च राजितं वेणुकीचकैः ॥ १८ ॥
(भगवान् ब्रह्माजी कह रहे हैं कि) भगवान् रुद्र परम स्वतन्त्र हैं, उनके तत्त्व और शक्ति-सामर्थ्य को न तो कोई ऋषि-मुनि, देवता और यज्ञ-स्वरूप देवराज इन्द्र ही जानते हैं और न स्वयं मैं ही जानता हूँ; फिर दूसरोंकी तो बात ही क्या है। ऐसी अवस्थामें उन्हें शान्त करनेका उपाय कौन कर सकता है’ ॥ ७ ॥
देवताओंसे इस प्रकार कहकर ब्रह्माजी उनको, प्रजापतियोंको और पितरोंको साथ ले अपने लोकसे पर्वतश्रेष्ठ कैलासको गये, जो भगवान् शङ्करका प्रिय धाम है ॥ ८ ॥ उस कैलास पर ओषधि, तप, मन्त्र तथा योग आदि उपायोंसे सिद्धिको प्राप्त हुए और जन्मसे ही सिद्ध देवता नित्य निवास करते हैं; किन्नर, गन्धर्व और अप्सरादि सदा वहाँ बने रहते हैं ॥ ९ ॥ उसके मणिमय शिखर हैं, जो नाना प्रकारकी धातुओंसे रंग-बिरंगे प्रतीत होते हैं। उसपर अनेक प्रकारके वृक्ष, लता और गुल्मादि छाये हुए हैं, जिनमें झुंड-के-झुंड जंगली पशु विचरते रहते हैं ॥ १० ॥ वहाँ निर्मल जलके अनेकों झरने बहते हैं और बहुत-सी गहरी कन्दरा और ऊँचे शिखरोंके कारण वह पर्वत अपने प्रियतमोंके साथ विहार करती हुई सिद्धपत्नियोंका क्रीडा-स्थल बना हुआ है ॥ ११ ॥ वह सब ओर मोरोंके शोर, मदान्ध भ्रमरोंके गुंजार, कोयलोंकी कुहू-कुहू ध्वनि तथा अन्यान्य पक्षियोंके कलरवसे गूँज रहा है ॥ १२ ॥ उसके कल्पवृक्ष अपनी ऊँची-ऊँची डालियोंको हिला-हिलाकर मानो पक्षियोंको बुलाते रहते हैं। तथा हाथियोंके चलने-फिरनेके कारण वह कैलास स्वयं चलता हुआ-सा और झरनों की कलकल-ध्वनिसे बातचीत करता हुआ-सा जान पड़ता है ॥ १३ ॥
मन्दार, पारिजात, सरल, तमाल, शाल, ताड़, कचनार, असन और अर्जुनके वृक्षोंसे वह पर्वत बड़ा ही सुहावना जान पड़ता है ॥ १४ ॥ आम, कदम्ब, नीप, नाग, पुन्नाग, चम्पा, गुलाब, अशोक, मौलसिरी, कुन्द, कुरबक, सुनहरे शतपत्र कमल, इलायची और मालतीकी मनोहर लताएँ तथा कुब्जक, मोगरा और माधवीकी बेलें भी उसकी शोभा बढ़ाती हैं ॥ १५-१६ ॥ कटहल, गूलर, पीपल, पाकर, बड़, गूगल, भोजवृक्ष, ओषध जातिके पेड़ (केले आदि, जो फल आनेके बाद काट दिये जाते हैं), सुपारी, राजपूग, जामुन, खजूर, आमड़ा, आम, पियाल, महुआ और लिसौड़ा आदि विभिन्न प्रकारके वृक्षों तथा पोले और ठोस बाँसके झुरमुटोंसे वह पर्वत बड़ा ही मनोहर मालूम होता है ॥ १७-१८ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
🌹💟🔱ॐ श्रीपरमात्मने नमः
जवाब देंहटाएंजय हो कैलाशवासी उमापति नीलकंठ महादेव 🙏
श्रीकृष्ण गोविंद हरे मुरारे
हे नाथ नारायण वासुदेव: !!