॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
दक्षयज्ञकी पूर्ति
मैत्रेय उवाच -
इत्यजेनानुनीतेन भवेन परितुष्यता ।
अभ्यधायि महाबाहो प्रहस्य श्रूयतामिति ॥ १ ॥
महादेव उवाच -
नाघं प्रजेश बालानां वर्णये नानुचिन्तये ।
देवमायाभिभूतानां दण्डस्तत्र धृतो मया ॥ २ ॥
प्रजापतेर्दग्धशीर्ष्णो भवत्वजमुखं शिरः ।
मित्रस्य चक्षुषेक्षेत भागं स्वं बर्हिषो भगः ॥ ३ ॥
पूषा तु यजमानस्य दद्भिर्जक्षतु पिष्टभुक् ।
देवाः प्रकृतसर्वाङ्गा ये मे उच्छेषणं ददुः ॥ ४ ॥
बाहुभ्यां अश्विनोः पूष्णो हस्ताभ्यां कृतबाहवः ।
भवन्तु अध्वर्यवश्चान्ये बस्तश्मश्रुर्भृगुर्भवेत् ॥ ५ ॥
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—महाबाहो विदुरजी ! ब्रह्माजीके इस प्रकार प्रार्थना करनेपर भगवान् शङ्करने प्रसन्नतापूर्वक हँसते हुए कहा—सुनिये ॥ १ ॥
श्रीमहादेवजीने कहा—‘प्रजापते ! भगवान्की मायासे मोहित हुए दक्ष-जैसे नासमझों के अपराधकी न तो मैं चर्चा करता हूँ और न याद ही। मैंने तो केवल सावधान करनेके लिये ही उन्हें थोड़ा-सा दण्ड दे दिया ॥ २ ॥ दक्षप्रजापति का सिर जल गया है, इसलिये उनके बकरे का सिर लगा दिया जाय; भगदेव मित्रदेवता के नेत्रों से अपना यज्ञभाग देखें ॥ ३ ॥ पूषा पिसा हुआ अन्न खानेवाले हैं, वे उसे यजमानके दाँतोंसे भक्षण करें तथा अन्य सब देवताओंके अङ्ग-प्रत्यङ्ग भी स्वस्थ हो जायँ; क्योंकि उन्होंने यज्ञसे बचे हुए पदार्थोंको मेरा भाग निश्चित किया है ॥ ४ ॥ अध्वर्यु आदि याज्ञिकों में से जिनकी भुजाएँ टूट गयी हैं, वे अश्विनीकुमारकी भुजाओंसे और जिनके हाथ नष्ट हो गये हैं, वे पूषाके हाथोंसे काम करें तथा भृगुजीके बकरेकी-सी दाढ़ी-मूँछ हो जाय’ ॥ ५ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
🌺🌿💟ॐश्रीपरमात्मने नमः
जवाब देंहटाएंजय प्रभु हरि: हर 🙏
ॐ नमः शिवाय
श्रीकृष्ण गोविंद हरे मुरारे
हे नाथ नारायण वासुदेव: !!