बुधवार, 17 सितंबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - सातवां अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

दक्षयज्ञकी पूर्ति

मैत्रेय उवाच -
तदा सर्वाणि भूतानि श्रुत्वा मीढुष्टमोदितम् ।
परितुष्टात्मभिस्तात साधु साध्वित्यथाब्रुवन् ॥ ६ ॥
ततो मीढ्वांसमामन्त्र्य शुनासीराः सहर्षिभिः ।
भूयस्तद् देवयजनं समीढ्वद्वेधसो ययुः ॥ ७ ॥
विधाय कार्त्स्न्येन च तद् यदाह भगवान्भवः ।
सन्दधुः कस्य कायेन सवनीयपशोः शिरः ॥ ८ ॥
सन्धीयमाने शिरसि दक्षो रुद्राभिवीक्षितः ।
सद्यः सुप्त इवोत्तस्थौ ददृशे चाग्रतो मृडम् ॥ ९ ॥
तदा वृषध्वजद्वेष कलिलात्मा प्रजापतिः ।
शिवावलोकाद् अभवत् शरद्ध्रद इवामलः ॥ १० ॥
भवस्तवाय कृतधीः नाशक्नोत् अनुरागतः ।
औत्कण्ठ्याद् बाष्पकलया संपरेतां सुतां स्मरन् ॥ ११ ॥
कृच्छ्रात्संस्तभ्य च मनः प्रेमविह्वलितः सुधीः ।
शशंस निर्व्यलीकेन भावेनेशं प्रजापतिः ॥ १२ ॥

दक्ष उवाच -
भूयाननुग्रह अहो भवता कृतो मे
     दण्डस्त्वया मयि भृतो यदपि प्रलब्धः ।
न ब्रह्मबन्धुषु च वां भगवन् अवज्ञा
     तुभ्यं हरेश्च कुत एव धृतव्रतेषु ॥ १३ ॥
विद्यातपो व्रतधरान् मुखतः स्म विप्रान् ।
     ब्रह्माऽऽत्मतत्त्वमवितुं प्रथमं त्वमस्राक् ।
तद्ब्रापह्मणान् परम सर्वविपत्सु पासि ।
     पालः पशूनिव विभो प्रगृहीतदण्डः ॥ १४ ॥
योऽसौ मयाविदिततत्त्वदृशा सभायां
     क्षिप्तो दुरुक्तिविशिखैर्विगणय्य तन्माम् ।
अर्वाक् पतन्तमर्हत्तमनिन्दयापाद्
     दृष्ट्याऽऽर्द्रया स भगवान् स्वकृतेन तुष्येत् ॥ १५ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—वत्स विदुर ! तब भगवान्‌ शङ्कर के वचन सुनकर सब लोग प्रसन्न चित्तसे ‘धन्य ! धन्य !’ कहने लगे ॥ ६ ॥ फिर सभी देवता और ऋषियोंने महादेवजीसे दक्षकी यज्ञशाला- में पधारनेकी प्रार्थना की और तब वे उन्हें तथा ब्रह्माजीको साथ लेकर वहाँ गये ॥ ७ ॥ वहाँ जैसा-जैसा भगवान्‌ शङ्कर ने कहा था, उसी प्रकार सब कार्य करके उन्होंने दक्षकी धड़ से यज्ञपशु का सिर जोड़ दिया ॥ ८ ॥ सिर जुड़ जाने पर रुद्र-देव की दृष्टि पड़ते ही दक्ष तत्काल सोकर जागने के समान जी उठे और अपने सामने भगवान्‌ शिवको देखा ॥ ९ ॥ दक्ष का शङ्करद्रोह की कालिमा से कलुषित हृदय उनका दर्शन करने से शरत्कालीन सरोवरके समान स्वच्छ हो गया ॥ १० ॥ उन्होंने महादेवजीकी स्तुति करनी चाही, किन्तु अपनी मरी हुई बेटी सतीका स्मरण हो आनेसे स्नेह और उत्कण्ठाके कारण उनके नेत्रोंमें आँसू भर आये। उनके मुखसे शब्द न निकल सका ॥ ११ ॥ प्रेमसे विह्वल, परम बुद्धिमान् प्रजापतिने जैसे-तैसे अपने हृदयके आवेगको रोककर विशुद्धभावसे भगवान्‌ शिवकी स्तुति करनी आरम्भ की ॥ १२ ॥
दक्षने कहा—भगवन् ! मैंने आपका अपराध किया था, किन्तु आपने उसके बदलेमें मुझे दण्डके द्वारा शिक्षा देकर बड़ा ही अनुग्रह किया है। अहो ! आप और श्रीहरि तो आचारहीन, नाममात्रके ब्राह्मणोंकी भी उपेक्षा नहीं करते—फिर हम-जैसे यज्ञ-यागादि करनेवालोंको क्यों भूलेंगे ॥ १३ ॥ विभो ! आपने ब्रह्मा होकर सबसे पहले आत्मतत्त्वकी रक्षाके लिये अपने मुखसे विद्या, तप और व्रतादिके धारण करनेवाले ब्राह्मणोंको उत्पन्न किया था। जैसे चरवाहा लाठी लेकर गौओंकी रक्षा करता है, उसी प्रकार आप उन ब्राह्मणोंकी सब विपत्तियोंसे रक्षा करते हैं ॥ १४ ॥ मैं आपके तत्त्वको नहीं जानता था, इसीसे मैंने भरी सभामें आपको अपने वाग्बाणोंसे बेधा था। किन्तु आपने मेरे उस अपराधका कोई विचार नहीं किया। मैं तो आप-जैसे पूज्यतम महानुभावोंका अपराध करनेके कारण नरकादि नीच लोकोंमें गिरनेवाला था, परन्तु आपने अपनी करुणाभरी दृष्टिसे मुझे उबार लिया। अब भी आपको प्रसन्न करनेयोग्य मुझमें कोई गुण नहीं है; बस, आप अपने ही उदारतापूर्ण बर्तावसे मुझपर प्रसन्न हों ॥ १५ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


1 टिप्पणी:

  1. 🌹💖🔱 ॐ श्रीपरमात्मने नमः
    नमः पार्वती पतये हर हर महादेव
    श्रीकृष्ण गोविंद हरे मुरारे
    हे नाथ नारायण वासुदेव: !!
    नारायण नारायण नारायण नारायण

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