॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध – चौथा अध्याय..(पोस्ट०६)
सती का अग्निप्रवेश
मैत्रेय उवाच -
इत्यध्वरे दक्षमनूद्य शत्रुहन्
क्षितावुदीचीं निषसाद शान्तवाक् ।
स्पृष्ट्वा जलं पीतदुकूलसंवृता
निमील्य दृग्योगपथं समाविशत् ॥ २४ ॥
कृत्वा समानावनिलौ जितासना
सोदानमुत्थाप्य च नाभिचक्रतः ।
शनैर्हृदि स्थाप्य धियोरसि स्थितं
कण्ठाद् भ्रुवोर्मध्यमनिन्दितानयत् ॥ २५ ॥
एवं स्वदेहं महतां महीयसा
मुहुः समारोपितमङ्कमादरात् ।
जिहासती दक्षरुषा मनस्विनी
दधार गात्रेष्वनिलाग्निधारणाम् ॥ २६ ॥
ततः स्वभर्तुश्चरणाम्बुजासवं
जगद्गुचरोश्चिन्तयती न चापरम् ।
ददर्श देहो हतकल्मषः सती
सद्यः प्रजज्वाल समाधिजाग्निना ॥ २७ ॥
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—कामादि शत्रुओंको जीतनेवाले विदुरजी ! उस यज्ञमण्डपमें दक्षसे इस प्रकार कह देवी सती मौन होकर उत्तर दिशामें भूमिपर बैठ गयीं। उन्होंने आचमन करके पीला वस्त्र ओढ़ लिया तथा आँखें मूँदकर शरीर छोडऩेके लिये वे योगमार्ग में स्थित हो गयीं ॥ २४ ॥ उन्होंने आसन को स्थिरकर प्राणायामद्वारा प्राण और अपान को एकरूप करके नाभिचक्र में स्थित किया; फिर उदानवायु को नाभिचक्र से ऊपर उठाकर धीरे-धीरे बुद्धि के साथ हृदय में स्थापित किया। इसके पश्चात् अनिन्दिता सती उस हृदयस्थित वायुको कण्ठमार्गसे भ्रुकुटियोंके बीचमें ले गयीं ॥ २५ ॥ इस प्रकार, जिस शरीरको महापुरुषोंके भी पूजनीय भगवान् शङ्करने कई बार बड़े आदरसे अपनी गोदमें बैठाया था, दक्षपर कुपित होकर उसे त्यागनेकी इच्छासे महामनस्विनी सतीने अपने सम्पूर्ण अङ्गोंमें वायु और अग्नि की धारणा की ॥ २६ ॥ अपने पति जगद्गुरु भगवान् शङ्करके चरण- कमल-मकरन्दका चिन्तन करते-करते सतीने और सब ध्यान भुला दिये; उन्हें उन चरणोंके अतिरिक्त कुछ भी दिखायी न दिया। इससे वे सर्वथा निर्दोष, अर्थात् मैं दक्षकन्या हूँ—ऐसे अभिमान से भी मुक्त हो गयीं और उनका शरीर तुरंत ही योगाग्नि से जल उठा ॥ २७ ॥
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🌺🌿🌸ॐश्रीपरमात्मने नमः
जवाब देंहटाएंजय शंकर प्रिया नमस्तुभ्यम् मां आदिशक्ति 🙏🙏
श्रीकृष्ण गोविंद हरे मुरारे
हे नाथ नारायण वासुदेव: !!
श्रीराधेकृष्णाभ्याम् नमः 🙏