सोमवार, 8 सितंबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - तीसरा अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध - तीसरा अध्याय..(पोस्ट०४)

सती का पिता के यहाँ यज्ञोत्सव में जाने के लिये आग्रह करना

व्यक्तं त्वमुत्कृष्टगतेः प्रजापतेः
     प्रियात्मजानामसि सुभ्रु मे मता ।
तथापि मानं न पितुः प्रपत्स्यसे
     मदाश्रयात्कः परितप्यते यतः ॥ २० ॥
पापच्यमानेन हृदाऽऽतुरेन्द्रियः
     समृद्धिभिः पूरुषबुद्धिसाक्षिणाम् ।
अकल्प एषामधिरोढुमञ्जसा
     परं पदं द्वेष्टि यथासुरा हरिम् ॥ २१ ॥
प्रत्युद्गंमप्रश्रयणाभिवादनं
     विधीयते साधु मिथः सुमध्यमे ।
प्राज्ञैः परस्मै पुरुषाय चेतसा
     गुहाशयायैव न देहमानिने ॥ २२ ॥
सत्त्वं विशुद्धं वसुदेवशब्दितं
     यदीयते तत्र पुमानपावृतः ।
सत्त्वे च तस्मिन् भगवान् वासुदेवो
     ह्यधोक्षजो मे नमसा विधीयते ॥ २३ ॥
तत्ते निरीक्ष्यो न पितापि देहकृद्
     दक्षो मम द्विट् तदनुव्रताश्च ये ।
यो विश्वसृग्यज्ञगतं वरोरु मां
     अनागसं दुर्वचसाकरोत्तिरः ॥ २४ ॥
यदि व्रजिष्यस्यतिहाय मद्वचो
     भद्रं भवत्या न ततो भविष्यति ।
सम्भावितस्य स्वजनात्पराभवो
     यदा स सद्यो मरणाय कल्पते ॥ २५ ॥
 
भगवान्‌ शङ्कर कह रहे  हैं- सुन्दरि ! अवश्य ही मैं यह जानता हूँ कि तुम परमोन्नति को प्राप्त हुए दक्षप्रजापति को अपनी कन्याओं में सब से अधिक प्रिय हो। तथापि मेरी आश्रिता होने के कारण तुम्हें अपने पितासे मान नहीं मिलेगा; क्योंकि वे मुझसे बहुत जलते हैं ॥ २० ॥ जीवकी चित्तवृत्तिके साक्षी अहंकारशून्य महापुरुषोंकी समृद्धिको देखकर जिसके हृदयमें सन्ताप और इन्द्रियों में व्यथा होती है, वह पुरुष उनके पद को तो सुगमता से प्राप्त कर नहीं सकता; बस, दैत्यगण जैसे श्रीहरि से द्वेष मानते हैं, वैसे ही उनसे कुढ़ता रहता है ॥ २१ ॥
सुमध्यमे ! तुम कह सकती हो कि आपने प्रजापतियोंकी सभामें उनका आदर क्यों नहीं किया। सो ये सम्मुख जाना, नम्रता दिखाना, प्रणाम करना आदि क्रियाएँ जो लोकव्यवहारमें परस्पर की जाती हैं, तत्त्वज्ञानियोंके द्वारा बहुत अच्छे ढंगसे की जाती हैं। वे अन्तर्यामीरूपसे सबके अन्त:करणोंमें स्थित परमपुरुष वासुदेवको ही प्रणामादि करते हैं; देहाभिमानी पुरुषको नहीं करते ॥ २२ ॥ विशुद्ध अन्त:करणका नाम ही ‘वसुदेव’ है, क्योंकि उसीमें भगवान्‌ वासुदेवका अपरोक्ष अनुभव होता है। उस शुद्ध चित्तमें स्थित इन्द्रियातीत भगवान्‌ वासुदेवको ही मैं नमस्कार किया करता हूँ ॥ २३ ॥ इसीलिये प्रिये ! जिसने प्रजापतियोंके यज्ञमें, मेरेद्वारा कोई अपराध न होनेपर भी, मेरा कटुवाक्योंसे तिरस्कार किया था, वह दक्ष यद्यपि तुम्हारे शरीरको उत्पन्न करनेवाला पिता है, तो भी मेरा शत्रु होनेके कारण तुम्हें उसे अथवा उसके अनुयायियोंको देखनेका विचार भी नहीं करना चाहिये ॥ २४ ॥ यदि तुम मेरी बात न मानकर वहाँ जाओगी, तो तुम्हारे लिये अच्छा न होगा; क्योंकि जब किसी प्रतिष्ठित व्यक्तिका अपने आत्मीयजनोंके द्वारा अपमान होता है, तब वह तत्काल उनकी मृत्युका कारण हो जाता है ॥ २५ ॥
  
इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे उमारुद्रसंवादे तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


1 टिप्पणी:

  1. 💐🌿💟🔱जय श्री हरि: !!🙏
    महामृत्युंजय महादेवम्
    जय हो त्रिपुरारी उमापति नीलकंठ महादेव 🙏 नारायण नारायण नारायण नारायण

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