बुधवार, 24 सितंबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - आठवां अध्याय..(पोस्ट०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

ध्रुवका वन-गमन

मैत्रेय उवाच -
इत्युदाहृतमाकर्ण्य भगवान् नारदस्तदा ।
प्रीतः प्रत्याह तं बालं सद्वाक्यं अनुकम्पया ॥ ३९ ॥

नारद उवाच -
जनन्याभिहितः पन्थाः स वै निःश्रेयसस्य ते ।
भगवान् वासुदेवस्तं भज तं प्रवणात्मना ॥ ४० ॥
धर्मार्थकाममोक्षाख्यं य इच्छेत् श्रेय आत्मनः ।
एकं ह्येव हरेस्तत्र कारणं पादसेवनम् ॥ ४१ ॥
तत्तात गच्छ भद्रं ते यमुनायास्तटं शुचि ।
पुण्यं मधुवनं यत्र सान्निध्यं नित्यदा हरेः ॥ ४२ ॥
स्नात्वानुसवनं तस्मिन् कालिन्द्याः सलिले शिवे ।
कृत्वोचितानि निवसन् आत्मनः कल्पितासनः ॥ ४३ ॥
प्राणायामेन त्रिवृता प्राणेन्द्रियमनोमलम् ।
शनैर्व्युदस्याभिध्यायेन् मनसा गुरुणा गुरुम् ॥ ४४ ॥
प्रसादाभिमुखं शश्वत् प्रसन्नवदनेक्षणम् ।
सुनासं सुभ्रुवं चारु कपोलं सुरसुन्दरम् ॥ ४५ ॥
तरुणं रमणीयाङ्‌गं अरुणोष्ठेक्षणाधरम् ।
प्रणताश्रयणं नृम्णं शरण्यं करुणार्णवम् ॥ ४६ ॥
श्रीवत्साङ्‌कं घनश्यामं पुरुषं वनमालिनम् ।
शङ्‌खचक्रगदापद्मैः अभिव्यक्तचतुर्भुजम् ॥ ४७ ॥
किरीटिनं कुण्डलिनं केयूरवलयान्वितम् ।
कौस्तुभाभरणग्रीवं पीतकौशेयवाससम् ॥ ४८ ॥
काञ्चीकलापपर्यस्तं लसत्काञ्चन नूपुरम् ।
दर्शनीयतमं शान्तं मनोनयनवर्धनम् ॥ ४९ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—ध्रुवकी बात सुनकर भगवान्‌ नारदजी बड़े प्रसन्न हुए और उसपर कृपा करके इस प्रकार सदुपदेश देने लगे ॥ ३९ ॥
श्रीनारदजीने कहा—बेटा ! तेरी माता सुनीति ने तुझे जो कुछ बताया है, वही तेरे लिये परम कल्याणका मार्ग है। भगवान्‌ वासुदेव ही वह उपाय हैं, इसलिये तू चित्त लगाकर उन्हींका भजन कर ॥ ४० ॥ जिस पुरुषको अपने लिये धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप पुरुषार्थकी अभिलाषा हो, उसके लिये उनकी प्राप्तिका उपाय एकमात्र श्रीहरिके चरणोंका सेवन ही है ॥ ४१ ॥ बेटा ! तेरा कल्याण होगा, अब तू श्रीयमुनाजी के तटवर्ती परम पवित्र मधुवन को जा। वहाँ श्रीहरि का नित्य- निवास है ॥ ४२ ॥ वहाँ श्रीकालिन्दी के निर्मल जलमें तीनों समय स्नान करके नित्यकर्मसे निवृत्त हो यथाविधि आसन बिछाकर स्थिरभाव से बैठना ॥ ४३ ॥ फिर रेचक, पूरक और कुम्भक—तीन प्रकारके प्राणायामसे धीरे-धीरे प्राण, मन और इन्द्रियके दोषोंको दूरकर धैर्ययुक्त मनसे परमगुरु श्रीभगवान्‌का इस प्रकार ध्यान करना ॥ ४४ ॥
भगवान्‌के नेत्र और मुख निरन्तर प्रसन्न रहते हैं; उन्हें देखनेसे ऐसा मालूम होता है कि वे प्रसन्नतापूर्वक भक्तको वर देनेके लिये उद्यत हैं। उनकी नासिका, भौंहें और कपोल बड़े ही सुहावने हैं; वे सभी देवताओंमें परम सुन्दर हैं ॥ ४५ ॥ उनकी तरुण अवस्था है; सभी अङ्ग बड़े सुडौल हैं; लाल-लाल होठ और रतनारे नेत्र हैं। वे प्रणतजनोंको आश्रय देनेवाले, अपार सुखदायक,शरणागतवत्सल और दयाके समुद्र हैं ॥ ४६ ॥ उनके वक्ष:स्थलमें श्रीवत्सका चिह्न है; उनका शरीर सजल जलधरके समान श्यामवर्ण है; वे परम पुरुष श्यामसुन्दर गलेमें वनमाला धारण किये हुए हैं और उनकी चार भुजाओंमें शङ्ख, चक्र, गदा एवं पद्म सुशोभित हैं ॥ ४७ ॥ उनके अङ्ग-प्रत्यङ्ग किरीट, कुण्डल, केयूर और कङ्कणादि आभूषणोंसे विभूषित हैं; गला कौस्तुभमणिकी भी शोभा बढ़ा रहा है तथा शरीरमें रेशमी पीताम्बर है ॥ ४८ ॥ उनके कटिप्रदेशमें काञ्चनकी करधनी और चरणोंमें सुवर्णमय नूपुर (पैजनी) सुशोभित हैं। भगवान्‌का स्वरूप बड़ा ही दर्शनीय, शान्त तथा मन और नयनोंको आनन्दित करनेवाला है ॥ ४९ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


1 टिप्पणी:

  1. 🌹💖🥀जय श्री हरि: !!🙏
    ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
    श्रीकृष्ण गोविंद हरे मुरारे
    हे नाथ नारायण वासुदेव: !!

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