बुधवार, 24 सितंबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - आठवां अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

ध्रुवका वन-गमन

नारद उवाच -
नाधुनाप्यवमानं ते सम्मानं वापि पुत्रक ।
लक्षयामः कुमारस्य सक्तस्य क्रीडनादिषु ॥ २७ ॥
विकल्पे विद्यमानेऽपि न ह्यसन्तोषहेतवः ।
पुंसो मोहमृते भिन्ना यल्लोके निजकर्मभिः ॥ २८ ॥
परितुष्येत् ततस्तात तावन्मात्रेण पूरुषः ।
दैवोपसादितं यावद् वीक्ष्येश्वरगतिं बुधः ॥ २९ ॥
अथ मात्रोपदिष्टेन योगेनावरुरुत्ससि ।
यत्प्रसादं स वै पुंसां दुराराध्यो मतो मम ॥ ३० ॥
मुनयः पदवीं यस्य निःसङ्‌गेनोरुजन्मभिः ।
न विदुर्मृगयन्तोऽपि तीव्रयोगसमाधिना ॥ ३१ ॥
अतो निवर्ततामेष निर्बन्धस्तव निष्फलः ।
यतिष्यति भवान् काले श्रेयसां समुपस्थिते ॥ ३२ ॥
यस्य यद् दैवविहितं स तेन सुखदुःखयोः ।
आत्मानं तोषयन् देही तमसः पारमृच्छति ॥ ३३ ॥
गुणाधिकान्मुदं लिप्सेद् अनुक्रोशं गुणाधमात् ।
मैत्रीं समानादन्विच्छेत् न तापैरभिभूयते ॥ ३४ ॥

ध्रुव उवाच -
सोऽयं शमो भगवता सुखदुःखहतात्मनाम् ।
दर्शितः कृपया पुंसां दुर्दर्शोऽस्मद्विधैस्तु यः ॥ ३५ ॥
अथापि मेऽविनीतस्य क्षात्त्रं घोरमुपेयुषः ।
सुरुच्या दुर्वचोबाणैः न भिन्ने श्रयते हृदि ॥ ३६ ॥
पदं त्रिभुवनोत्कृष्टं जिगीषोः साधु वर्त्म मे ।
ब्रूहि अस्मत् पितृभिर्ब्रह्मन् अन्यैरप्यनधिष्ठितम् ॥ ३७ ॥
नूनं भवान् भगवतो योऽङ्‌गजः परमेष्ठिनः ।
वितुदन्नटते वीणां हिताय जगतोऽर्कवत् ॥ ३८ ॥

तत्पश्चात् नारदजीने ध्रुवसे कहा—बेटा ! अभी तो तू बच्चा है, खेल-कूदमें ही मस्त रहता है; हम नहीं समझते कि इस उम्रमें किसी बातसे तेरा सम्मान या अपमान हो सकता है ॥ २७ ॥ यदि तुझे मानापमान का विचार ही हो, तो बेटा ! असलमें मनुष्यके असन्तोषका कारण मोहके सिवा और कुछ नहीं है। संसार में मनुष्य अपने कर्मानुसार ही मान-अपमान या सुख-दु:ख आदि को प्राप्त होता है ॥ २८ ॥ तात ! भगवान्‌ की गति बड़ी विचित्र है ! इसलिये उसपर विचार करके बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि दैववश उसे जैसी भी परिस्थितिका सामना करना पड़े, उसीमें सन्तुष्ट रहे ॥ २९ ॥ अब, माताके उपदेशसे तू योगसाधन द्वारा जिन भगवान्‌ की कृपा प्राप्त करने चला है— मेरे विचारसे साधारण पुरुषों के लिये उन्हें प्रसन्न करना बहुत ही कठिन है ॥ ३० ॥ योगीलोग अनेकों जन्मोंतक अनासक्त रहकर समाधियोग के द्वारा बड़ी-बड़ी कठोर साधनाएँ करते रहते हैं, परन्तु भगवान्‌ के मार्गका पता नहीं पाते ॥ ३१ ॥ इसलिये तू यह व्यर्थका हठ छोड़ दे और घर लौट जा; बड़ा होनेपर जब परमार्थ-साधनका समय आवे, तब उसके लिये प्रयत्न कर लेना ॥ ३२ ॥ विधाताके विधानके अनुसार सुख-दु:ख जो कुछ भी प्राप्त हो, उसीमें चित्तको सन्तुष्ट रखना चाहिये। यों करनेवाला पुरुष मोहमय संसारसे पार हो जाता है ॥ ३३ ॥ मनुष्यको चाहिये कि अपनेसे अधिक गुणवान्को देखकर प्रसन्न हो; जो कम गुणवाला हो, उसपर दया करे और जो अपने समान गुणवाला हो, उससे मित्रताका भाव रखे। यों करनेसे उसे दु:ख कभी नहीं दबा सकते ॥ ३४ ॥
ध्रुवने कहा—भगवन् ! सुख-दु:खसे जिनका चित्त चञ्चल हो जाता है, उन लोगोंके लिये आपने कृपा करके शान्तिका यह बहुत अच्छा उपाय बतलाया। परन्तु मुझ-जैसे अज्ञानियोंकी दृष्टि यहाँतक नहीं पहुँच पाती ॥ ३५ ॥ इसके सिवा, मुझे घोर क्षत्रियस्वभाव प्राप्त हुआ है, अतएव मुझमें विनयका प्राय: अभाव है; सुरुचिने अपने कटुवचनरूपी बाणोंसे मेरे हृदयको विदीर्ण कर डाला है; इसलिये उसमें आपका यह उपदेश नहीं ठहर पाता ॥ ३६ ॥ ब्रह्मन् ! मैं उस पदपर अधिकार करना चाहता हूँ, जो त्रिलोकीमें सबसे श्रेष्ठ है तथा जिसपर मेरे बाप-दादे और दूसरे कोई भी आरूढ़ नहीं हो सके हैं। आप मुझे उसीकी प्राप्तिका कोई अच्छा-सा मार्ग बतलाइये ॥ ३७ ॥ आप भगवान्‌ ब्रह्माजीके पुत्र हैं और संसारके कल्याणके लिये ही वीणा बजाते सूर्यकी भाँति त्रिलोकीमें विचरा करते हैं ॥ ३८ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


1 टिप्पणी:

  1. 🌹💟🥀जय श्रीहरि: !!🙏
    ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
    नारायण नारायण हरि: !!हरि: !!

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