बुधवार, 10 सितंबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - चौथा अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – चौथा  अध्याय..(पोस्ट०४)

सती का अग्निप्रवेश

किं वा शिवाख्यमशिवं न विदुस्त्वदन्ये
     ब्रह्मादयस्तमवकीर्य जटाः श्मशाने ।
तन्माल्यभस्मनृकपाल्यवसत्पिशाचैः
     ये मूर्धभिर्दधति तच्चरणावसृष्टम् ॥ १६ ॥
कर्णौ पिधाय निरयाद्यदकल्प ईशे
     धर्मावितर्यसृणिभिर्नृभिरस्यमाने ।
छिन्द्यात्प्रसह्य रुशतीमसतीं प्रभुश्चेत्
     जिह्वामसूनपि ततो विसृजेत्स धर्मः ॥ १७ ॥
अतस्तवोत्पन्नमिदं कलेवरं
     न धारयिष्ये शितिकण्ठगर्हिणः ।
जग्धस्य मोहाद्धि विशुद्धिमन्धसो
     जुगुप्सितस्योद्धरणं प्रचक्षते ॥ १८ ॥
न वेदवादान् अनुवर्तते मतिः
     स्व एव लोके रमतो महामुनेः ।
यथा गतिर्देवमनुष्ययोः पृथक्
     स्व एव धर्मे न परं क्षिपेत्स्थितः ॥ १९ ॥

(देवी सती कह रही हैं)  वे केवल नाममात्रके शिव हैं, उनका वेष अशिवरूप-अमङ्गलरूप है; इस बातको आपके सिवा दूसरे कोई देवता सम्भवत: नहीं जानते; क्योंकि जो भगवान्‌ शिव श्मशानभूमिस्थ नरमुण्डों की माला, चिता की भस्म और हड्डियाँ पहने, जटा बिखेरे, भूत-पिशाचों के साथ श्मशान में निवास करते हैं, उन्हीं के चरणों पर से गिरे हुए निर्माल्य को ब्रह्मा आदि देवता अपने सिरपर धारण करते हैं ॥ १६ ॥ यदि निरङ्कुशलोग धर्ममर्यादा की रक्षा करनेवाले अपने पूजनीय स्वामीकी निन्दा करें तो अपनेमें उसे दण्ड देनेकी शक्ति न होनेपर कान बंद करके वहाँसे चला जाय और यदि शक्ति हो तो बलपूर्वक पकडक़र उस बकवाद करनेवाली अमङ्गलरूप दुष्ट जिह्वाको काट डाले। इस पापको रोकनेके लिये स्वयं अपने प्राणतक दे दे, यही धर्म है ॥ १७ ॥ आप भगवान्‌ नीलकण्ठकी निन्दा करनेवाले हैं, इसलिये आपसे उत्पन्न हुए इस शरीरको अब मैं नहीं रख सकती; यदि भूलसे कोई निन्दित वस्तु खा ली जाय, तो उसे वमन करके निकाल देनेसे ही मनुष्यकी शुद्धि बतायी जाती है ॥ १८ ॥ जो महामुनि निरन्तर अपने स्वरूपमें ही रमण करते हैं, उनकी बुद्धि सर्वथा वेदके विधिनिषेधमय वाक्योंका अनुसरण नहीं करती। जिस प्रकार देवता और मनुष्योंकी गतिमें भेद रहता है, उसी प्रकार ज्ञानी और अज्ञानीकी स्थिति भी एक-सी नहीं होती। इसलिये मनुष्यको चाहिये कि वह अपने ही धर्ममार्गमें स्थित रहते हुए भी दूसरोंके मार्गकी निन्दा न करे ॥ १९ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


1 टिप्पणी:

  1. 🔱🌸💟 ॐ श्रीपरमात्मने नमः
    जय हो प्रभु हरि: हर🙏
    श्रीकृष्ण गोविंद हरे मुरारे
    हे नाथ नारायण वासुदेव: !!

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