बुधवार, 10 सितंबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - चौथा अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – चौथा  अध्याय..(पोस्ट०३)

सती का अग्निप्रवेश

देव्युवाच -
न यस्य लोकेऽस्त्यतिशायनः प्रियः
     तथाप्रियो देहभृतां प्रियात्मनः ।
तस्मिन् समस्तात्मनि मुक्तवैरके
     ऋते भवन्तं कतमः प्रतीपयेत् ॥ ११ ॥
दोषान् परेषां हि गुणेषु साधवो
     गृह्णन्ति केचिन्न भवादृशो द्विज ।
गुणांश्च फल्गून् बहुलीकरिष्णवो
     महत्तमास्तेष्वविदद्भववानघम् ॥ १२ ॥
नाश्चर्यमेतद्यदसत्सु सर्वदा
     महद्विनिन्दा कुणपात्मवादिषु ।
सेर्ष्यं महापूरुषपादपांसुभिः
     निरस्ततेजःसु तदेव शोभनम् ॥ १३ ॥
यद् द्व्यक्षरं नाम गिरेरितं नृणां
     सकृत्प्रसङ्‌गादघमाशु हन्ति तत् ।
पवित्रकीर्तिं तमलङ्‌घ्यशासनं
     भवानहो द्वेष्टि शिवं शिवेतरः ॥ १४ ॥
यत्पादपद्मं महतां मनोऽलिभिः
     निषेवितं ब्रह्मरसासवार्थिभिः ।
लोकस्य यद्वर्षति चाशिषोऽर्थिनः
     तस्मै भवान् द्रुह्यति विश्वबन्धवे ॥ १५ ॥

देवी सतीने कहा—पिताजी ! भगवान्‌ शङ्कर से बड़ा तो संसारमें कोई भी नहीं है। वे तो सभी देहधारियोंके प्रिय आत्मा हैं। उनका न कोई प्रिय है, न अप्रिय, अतएव उनका किसी भी प्राणीसे वैर नहीं है। वे तो सबके कारण एवं सर्वरूप हैं; आपके सिवा और ऐसा कौन है जो उनसे विरोध करेगा ? ॥ ११ ॥ द्विजवर ! आप-जैसे लोग दूसरोंके गुणोंमें भी दोष ही देखते हैं, किन्तु कोई साधुपुरुष ऐसा नहीं करते। जो लोग—दोष देखनेकी बात तो अलग रही—दूसरोंके थोड़ेसे गुणको भी बड़े रूपमें देखना चाहते हैं, वे सबसे श्रेष्ठ हैं। खेद है कि आपने ऐसे महापुरुषोंपर भी दोषारोपण ही किया ॥ १२ ॥ जो दुष्ट मनुष्य इस शवरूप जडशरीरको ही आत्मा मानते हैं, वे यदि ईर्ष्यावश सर्वदा ही महापुरुषोंकी निन्दा करें तो यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं है। क्योंकि महापुरुष तो उनकी इस चेष्टापर कोई ध्यान नहीं देते, परन्तु उनके चरणोंकी धूलि उनके इस अपराधको न सहकर उनका तेज नष्ट कर देती है। अत: महापुरुषोंकी निन्दा-जैसा जघन्य कार्य उन दुष्ट पुरुषोंको ही शोभा देता है ॥ १३ ॥ जिनका ‘शिव’ यह दो अक्षरोंका नाम प्रसङ्गवश एक बार भी मुखसे निकल जानेपर मनुष्यके समस्त पापोंको तत्काल नष्ट कर देता है और जिनकी आज्ञाका कोई भी उल्लङ्घन नहीं कर सकता, अहो ! उन्हीं पवित्रकीर्ति मङ्गलमय भगवान्‌ शङ्करसे आप द्वेष करते हैं ! अवश्य ही आप अमङ्गलरूप हैं ॥ १४ ॥ अरे ! महापुरुषों के मन-मधुकर ब्रह्मानन्दमय रसका पान करनेकी इच्छासे जिनके चरणकमलोंका निरन्तर सेवन किया करते हैं और जिनके चरणारविन्द सकाम पुरुषोंको उनके अभीष्ट भोग भी देते हैं, उन विश्वबन्धु भगवान्‌ शिवसे आप वैर करते हैं ॥ १५ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


1 टिप्पणी:

  1. 💐💖🥀🔱 जय प्रभु हरि:हर
    ॐ श्रीपरमात्मने नमः
    श्रीकृष्ण गोविंद हरे मुरारे
    हे नाथ नारायण वासुदेव: !!

    जवाब देंहटाएं

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  चतुर्थ स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०३) ब्रह्मादि देवताओंका कैलास जाकर श्रीमहादेवजीको मनाना कु...