॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)
ध्रुवका वर पाकर घर लौटना
विदुर उवाच -
सुदुर्लभं यत्परमं पदं हरेः
मायाविनस्तत् चरणार्चनार्जितम् ।
लब्ध्वाप्यसिद्धार्थमिवैकजन्मना
कथं स्वमात्मानममन्यतार्थवित् ॥ २८ ॥
मैत्रेय उवाच -
मातुः सपत्न्याव वाग्बाणैः हृदि विद्धस्तु तान् स्मरन् ।
नैच्छन्मुक्तिपतेर्मुक्तिं तस्मात् तापमुपेयिवान् ॥ २९ ॥
ध्रुव उवाच –
समाधिना नैकभवेन यत्पदं
विदुः सनन्दादय ऊर्ध्वरेतसः ।
मासैरहं षड्भिरमुष्य पादयोः
छायामुपेत्यापगतः पृथङ्मतिः ॥ ३० ॥
अहो बत ममानात्म्यं मन्दभाग्यस्य पश्यत ।
भवच्छिदः पादमूलं गत्वा याचे यदन्तवत् ॥ ३१ ॥
मतिर्विदूषिता देवैः पतद्भिः असहिष्णुभिः ।
यो नारदवचस्तथ्यं नाग्राहिषमसत्तमः ॥ ३२ ॥
दैवीं मायामुपाश्रित्य प्रसुप्त इव भिन्नदृक् ।
तप्ये द्वितीयेऽप्यसति भ्रातृभ्रातृव्यहृद्रुजा ॥ ३३ ॥
मयैतत्प्रार्थितं व्यर्थं चिकित्सेव गतायुषि ।
प्रसाद्य जगदात्मानं तपसा दुष्प्रसादनम् ।
भवच्छिदमयाचेऽहं भवं भाग्यविवर्जितः ॥ ३४ ॥
स्वाराज्यं यच्छतो मौढ्यान् मानो मे भिक्षितो बत ।
ईश्वरात्क्षीणपुण्येन फलीकारानिवाधनः ॥ ३५ ॥
विदुरजीने पूछा—ब्रह्मन् ! मायापति श्रीहरिका परमपद तो अत्यन्त दुर्लभ है और मिलता भी उनके चरणकमलोंकी उपासनासे ही है। ध्रुवजी भी सारासार का पूर्ण विवेक रखते थे; फिर एक ही जन्ममें उस परमपदको पा लेनेपर भी उन्होंने अपनेको अकृतार्थ क्यों समझा ? ॥ २८ ॥
श्रीमैत्रेयजीने कहा—ध्रुवजीका हृदय अपनी सौतेली माताके वाग्बाणों से बिंध गया था तथा वर माँगनेके समय भी उन्हें उनका स्मरण बना हुआ था; इसीसे उन्होंने मुक्तिदाता श्रीहरिसे मुक्ति नहीं माँगी। अब जब भगवद्दर्शन से वह मनोमालिन्य दूर हो गया तो उन्हें अपनी इस भूलके लिये पश्चात्ताप हुआ ॥ २९ ॥
ध्रुवजी मन-ही-मन कहने लगे—अहो ! सनकादि ऊर्ध्वरेता (नैष्ठिक ब्रह्मचारी) सिद्ध भी जिन्हें समाधिद्वारा अनेकों जन्मोंमें प्राप्त कर पाते हैं, उन भगवच्चरणों की छायाको मैंने छ: महीने में ही पा लिया, किन्तु चित्तमें दूसरी वासना रहनेके कारण मैं फिर उनसे दूर हो गया ॥ ३० ॥ अहो ! मुझ मन्दभाग्यकी मूर्खता तो देखो, मैंने संसार-पाशको काटनेवाले प्रभुके पादपद्मोंमें पहुँचकर भी उनसे नाशवान् वस्तुकी ही याचना की ॥ ३१ ॥ देवताओंको स्वर्गभोगके पश्चात् फिर नीचे गिरना होता है, इसलिये वे मेरी भगवत्प्राप्तिरूप उच्च स्थितिको सहन नहीं कर सके; अत: उन्होंने ही मेरी बुद्धिको नष्ट कर दिया। तभी तो मुझ दुष्टने नारदजीकी यथार्थ बात भी स्वीकार नहीं की ॥ ३२ ॥ यद्यपि संसारमें आत्माके सिवा दूसरा कोई भी नहीं है; तथापि सोया हुआ मनुष्य जैसे स्वप्नमें अपने ही कल्पना किये हुए व्याघ्रादिसे डरता है, उसी प्रकार मैंने भी भगवान्की मायासे मोहित होकर भाईको ही शत्रु मान लिया और व्यर्थ ही द्वेषरूप हार्दिक रोगसे जलने लगा ॥ ३३ ॥ जिन्हें प्रसन्न करना अत्यन्त कठिन है; उन्हीं विश्वात्मा श्रीहरिको तपस्याद्वारा प्रसन्न करके मैंने जो कुछ माँगा है, वह सब व्यर्थ है; ठीक उसी तरह, जैसे गतायु पुरुषके लिये चिकित्सा व्यर्थ होती है। ओह ! मैं बड़ा भाग्यहीन हूँ, संसार-बन्धनका नाश करनेवाले प्रभुसे मैंने संसार ही माँगा ॥ ३४ ॥ मैं बड़ा ही पुण्यहीन हूँ ! जिस प्रकार कोई कँगला किसी चक्रवर्ती सम्राट्को प्रसन्न करके उससे तुषसहित चावलोंकी कनी माँगे, उसी प्रकार मैंने भी आत्मानन्द प्रदान करनेवाले श्रीहरिसे मूर्खतावश व्यर्थका अभिमान बढ़ानेवाले उच्चपदादि ही माँगे हैं ॥ ३५ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
🌹💟🥀 जय श्रीहरि: !!🙏
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नारायण नारायण हरि: !! हरि: !!