॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)
ध्रुवका वर पाकर घर लौटना
मैत्रेय उवाच -
न वै मुकुन्दस्य पदारविन्दयो
रजोजुषस्तात भवादृशा जनाः ।
वाञ्छन्ति तद्दास्यमृतेऽर्थमात्मनो
यदृच्छया लब्धमनःसमृद्धयः ॥ ३६ ॥
आकर्ण्यात्मजमायान्तं सम्परेत्य यथाऽऽगतम् ।
राजा न श्रद्दधे भद्रं अभद्रस्य कुतो मम ॥ ३७ ॥
श्रद्धाय वाक्यं देवर्षेः हर्षवेगेन धर्षितः ।
वार्ताहर्तुरतिप्रीतो हारं प्रादान्महाधनम् ॥ ३८ ॥
सदश्वं रथमारुह्य कार्तस्वरपरिष्कृतम् ।
ब्राह्मणैः कुलवृद्धैश्च पर्यस्तोऽमात्यबन्धुभिः ॥ ३९ ॥
शङ्खदुन्दुभिनादेन ब्रह्मघोषेण वेणुभिः ।
निश्चक्राम पुरात् तूर्णं आत्मजाभीक्षणोत्सुकः ॥ ४० ॥
सुनीतिः सुरुचिश्चास्य महिष्यौ रुक्मभूषिते ।
आरुह्य शिबिकां सार्धं उत्तमेनाभिजग्मतुः ॥ ४१ ॥
तं दृष्ट्वोपवनाभ्याश आयान्तं तरसा रथात् ।
अवरुह्य नृपस्तूर्णं आसाद्य प्रेमविह्वलः ॥ ४२ ॥
परिरेभेऽङ्गजं दोर्भ्यां दीर्घोत्कण्ठमनाः श्वसन् ।
विष्वक्सेनाङ्घ्रिसंस्पर्श हताशेषाघबन्धनम् ॥ ४३ ॥
अथाजिघ्रन् मुहुर्मूर्ध्नि शीतैर्नयनवारिभिः ।
स्नापयामास तनयं जातोद्दाममनोरथः ॥ ४४ ॥
अभिवन्द्य पितुः पादौ आशीर्भिश्चाभिमन्त्रितः ।
ननाम मातरौ शीर्ष्णा सत्कृतः सज्जनाग्रणीः ॥ ४५ ॥
सुरुचिस्तं समुत्थाप्य पादावनतमर्भकम् ।
परिष्वज्याह जीवेति बाष्पगद्गतदया गिरा ॥ ४६ ॥
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—तात ! तुम्हारी तरह जो लोग श्रीमुकुन्दपादारविन्द-मकरन्दके ही मधुकर हैं—जो निरन्तर प्रभुकी चरण-रजका ही सेवन करते हैं और जिनका मन अपने-आप आयी हुई सभी परिस्थितियोंमें सन्तुष्ट रहता है, वे भगवान्से उनकी सेवाके सिवा अपने लिये और कोई भी पदार्थ नहीं माँगते ॥ ३६ ॥
इधर जब राजा उत्तानपादने सुना कि उनका पुत्र ध्रुव घर लौट रहा है, तो उन्हें इस बातपर वैसे ही विश्वास नहीं हुआ जैसे कोई किसीके यमलोकसे लौटनेकी बातपर विश्वास न करे। उन्होंने यह सोचा कि ‘मुझ अभागे का ऐसा भाग्य कहाँ’ ॥ ३७ ॥ परन्तु फिर उन्हें देवर्षि नारदकी बात याद आ गयी। इससे उनका इस बातमें विश्वास हुआ और वे आनन्दके वेगसे अधीर हो उठे। उन्होंने अत्यन्त प्रसन्न होकर यह समाचार लानेवालेको एक बहुमूल्य हार दिया ॥ ३८ ॥ राजा उत्तानपादने पुत्रका मुख देखनेके लिये उत्सुक होकर बहुत-से ब्राह्मण, कुल के बड़े-बूढ़े, मन्त्री और बन्धुजनोंको साथ लिया तथा एक बढिय़ा घोड़ोंवाले सुवर्णजटित रथपर सवार होकर वे झटपट नगरके बाहर आये। उनके आगे-आगे वेदध्वनि होती जाती थी तथा शङ्ख, दुन्दुभि एवं वंशी आदि अनेकों माङ्गलिक बाजे बजते जाते थे ॥ ३९-४० ॥ उनकी दोनों रानियाँ सुनीति और सुरुचि भी सुवर्णमय आभूषणोंसे विभूषित हो राजकुमार उत्तमके साथ पालकियोंपर चढक़र चल रही थीं ॥ ४१ ॥ ध्रुवजी उपवनके पास आ पहुँचे, उन्हें देखते ही महाराज उत्तानपाद तुरंत रथसे उतर पड़े। पुत्रको देखनेके लिये वे बहुत दिनोंसे उत्कण्ठित हो रहे थे। उन्होंने झटपट आगे बढक़र प्रेमातुर हो, लंबीलंबी साँसें लेते हुए, ध्रुवको भुजाओं में भर लिया। अब ये पहलेके ध्रुव नहीं थे, प्रभुके परमपुनीत पादपद्मों का स्पर्श होनेसे इनके समस्त पाप-बन्धन कट गये थे ॥ ४२-४३ ॥ राजा उत्तानपादकी एक बहुत बड़ी कामना पूर्ण हो गयी। उन्होंने बार-बार पुत्रका सिर सूँघा और आनन्द तथा प्रेमके कारण निकलनेवाले ठंडे-ठंडे [*] आँसुओंसे उन्हें नहला दिया ॥ ४४ ॥
तदनन्तर सज्जनोंमें अग्रगण्य ध्रुवजीने पिताके चरणोंमें प्रणाम किया और उनसे आशीर्वाद पाकर, कुशल-प्रश्रादिसे सम्मानित हो दोनों माताओंको प्रणाम किया ॥ ४५ ॥ छोटी माता सुरुचिने अपने चरणोंपर झुके हुए बालक ध्रुवको उठाकर हृदयसे लगा लिया और अश्रुगद्गद वाणीसे ‘चिरञ्जीवी रहो’ ऐसा आशीर्वाद दिया ॥ ४६ ॥
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[*] आनन्द या प्रेमके कारण आँसू आते हैं वे ठंडे हुआ करते हैं और शोकके आँसू गरम होते हैं।
शेष आगामी पोस्ट में --
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