॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)
ध्रुवका वर पाकर घर लौटना
यस्य प्रसन्नो भगवान् गुणैर्मैत्र्यादिभिर्हरिः ।
तस्मै नमन्ति भूतानि निम्नमाप इव स्वयम् ॥ ४७ ॥
उत्तमश्च ध्रुवश्चोभौ अन्योन्यं प्रेमविह्वलौ ।
अङ्गसङ्गाद् उत्पुलकौ अस्रौघं मुहुरूहतुः ॥ ४८ ॥
सुनीतिरस्य जननी प्राणेभ्योऽपि प्रियं सुतम् ।
उपगुह्य जहावाधिं तदङ्गस्पर्शनिर्वृता ॥ ४९ ॥
पयः स्तनाभ्यां सुस्राव नेत्रजैः सलिलैः शिवैः ।
तदाभिषिच्यमानाभ्यां वीर वीरसुवो मुहुः ॥ ५० ॥
तां शशंसुर्जना राज्ञीं दिष्ट्या ते पुत्र आर्तिहा ।
प्रतिलब्धश्चिरं नष्टो रक्षिता मण्डलं भुवः ॥ ५१ ॥
अभ्यर्चितस्त्वया नूनं भगवान् प्रणतार्तिहा ।
यदनुध्यायिनो धीरा मृत्युं जिग्युः सुदुर्जयम् ॥ ५२ ॥
जिस प्रकार जल स्वयं ही नीचेकी ओर बहने लगता है—उसी प्रकार मैत्री आदि गुणोंके कारण जिसपर श्रीभगवान् प्रसन्न हो जाते हैं, उसके आगे सभी जीव झुक जाते हैं ॥ ४७ ॥ इधर उत्तम और ध्रुव दोनों ही प्रेमसे विह्वल होकर मिले। एक-दूसरे के अङ्गों का स्पर्श पाकर उन दोनों के ही शरीर में रोमाञ्च हो आया तथा नेत्रों से बार-बार आसुओंकी धारा बहने लगी ॥ ४८ ॥ ध्रुवकी माता सुनीति अपने प्राणोंसे भी प्यारे पुत्रको गले लगाकर सारा सन्ताप भूल गयी। उसके सुकुमार अङ्गोंके स्पर्शसे उसे बड़ा ही आनन्द प्राप्त हुआ ॥ ४९ ॥ वीरवर विदुरजी ! वीरमाता सुनीतिके स्तन उसके नेत्रोंसे झरते हुए मङ्गलमय आनन्दाश्रुओंसे भीग गये और उनसे बार-बार दूध बहने लगा ॥ ५० ॥ उस समय पुरवासी लोग उनकी प्रशंसा करते हुए कहने लगे, ‘महारानी जी ! आपका लाल बहुत दिनोंसे खोया हुआ था; सौभाग्यवश अब वह लौट आया, यह हम सबका दु:ख दूर करनेवाला है। बहुत दिनोंतक भूमण्डलकी रक्षा करेगा ॥ ५१ ॥ आपने अवश्य ही शरणागतभयभञ्जन श्रीहरिकी उपासना की है। उनका निरन्तर ध्यान करनेवाले धीर पुरुष परम दुर्जय मृत्युको भी जीत लेते हैं’ ॥ ५२ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
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