॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ
स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)
ध्रुवका
वर पाकर घर लौटना
लाल्यमानं
जनैरेवं ध्रुवं सभ्रातरं नृपः ।
आरोप्य
करिणीं हृष्टः स्तूयमानोऽविशत्पुरम् ॥ ५३ ॥
तत्र
तत्रोपसङ्कॢप्तैः लसन् मकरतोरणैः ।
सवृन्दैः
कदलीस्तम्भैः पूगपोतैश्च तद्विधैः ॥ ५४ ॥
चूतपल्लववासःस्रङ्
मुक्तादामविलम्बिभिः ।
उपस्कृतं
प्रतिद्वारं अपां कुम्भैः सदीपकैः ॥ ५५ ॥
प्राकारैः
गोपुरागारैः शातकुम्भपरिच्छदैः ।
सर्वतोऽलङ्कृतं
श्रीमद् विमानशिखरद्युभिः ॥ ५६ ॥
मृष्टचत्वररथ्याट्ट
मार्गं चन्दनचर्चितम् ।
लाजाक्षतैः
पुष्पफलैः तण्डुलैर्बलिभिर्युतम् ॥ ५७ ॥
ध्रुवाय
पथि दृष्टाय तत्र तत्र पुरस्त्रियः ।
सिद्धार्थाक्षतदध्यम्बु
दूर्वापुष्पफलानि च ॥ ५८ ॥
उपजह्रुः
प्रयुञ्जाना वात्सल्यादाशिषः सतीः ।
शृण्वन्
तद्वल्गुगीतानि प्राविशद्भवनं पितुः ॥ ५९ ॥
महामणिव्रातमये
स तस्मिन् भवनोत्तमे ।
लालितो
नितरां पित्रा न्यवसद् दिवि देववत् ॥ ६० ॥
पयःफेननिभाः
शय्या दान्ता रुक्मपरिच्छदाः ।
आसनानि
महार्हाणि यत्र रौक्मा उपस्कराः ॥ ६१ ॥
यत्र
स्फटिककुड्येषु महामारकतेषु च ।
मणिप्रदीपा
आभान्ति ललनारत्नसंयुताः ॥ ६२ ॥
उद्यानानि
च रम्याणि विचित्रैरमरद्रुमैः ।
कूजद्विहङ्गमिथुनैः
गायन्मत्तमधुव्रतैः ॥ ६३ ॥
वाप्यो
वैदूर्यसोपानाः पद्मोत्पलकुमुद्वतीः ।
हंसकारण्डवकुलैः
जुष्टाश्चक्राह्वसारसैः ॥ ६४ ॥
उत्तानपादो
राजर्षिः प्रभावं तनयस्य तम् ।
श्रुत्वा
दृष्ट्वाद्भुततमं प्रपेदे विस्मयं परम् ॥ ६५ ॥
वीक्ष्योढवयसं
तं च प्रकृतीनां च सम्मतम् ।
अनुरक्तप्रजं
राजा ध्रुवं चक्रे भुवः पतिम् ॥ ६६ ॥
आत्मानं
च प्रवयसं आकलय्य विशाम्पतिः ।
वनं
विरक्तः प्रातिष्ठद् विमृशन्नात्मनो गतिम् ॥ ६७ ॥
विदुरजी ! इस
प्रकार जब सभी लोग ध्रुवके प्रति अपना लाड़-प्यार प्रकट कर रहे थे,
उसी
समय उन्हें भाई उत्तमके सहित हथिनीपर चढ़ाकर महाराज उत्तानपादने बड़े हर्षके साथ
राजधानीमें प्रवेश किया। उस समय सभी लोग उनके भाग्यकी बड़ाई कर रहे थे ॥ ५३ ॥
नगरमें जहाँ-तहाँ मगरके आकारके सुन्दर दरवाजे बनाये गये थे तथा फल-फूलोंके
गुच्छोंके सहित केलेके खम्भे और सुपारीके पौधे सजाये गये थे ॥ ५४ ॥ द्वार-द्वारपर
दीपकके सहित जलके कलश रखे हुए थे—जो आमके
पत्तों,
वस्त्रों,
पुष्पमालाओं
तथा मोतीकी लडिय़ोंसे सुसज्जित थे ॥ ५५ ॥ जिन अनेकों परकोटों,
फाटकों
और महलोंसे नगरी सुशोभित थी, उन सबको
सुवर्णकी सामग्रियोंसे सजाया गया था तथा उनके कँगूरे विमानोंके शिखरोंके समान चमक
रहे थे ॥ ५६ ॥ नगरके चौक, गलियों,
अटारियों
और सडक़ोंको झाड़-बुहारकर उनपर चन्दनका छिडक़ाव किया गया था और जहाँ-तहाँ खील,
चावल,
पुष्प,
फल,
जौ
एवं अन्य माङ्गलिक उपहार-सामग्रियाँ सजी रखी थीं ॥ ५७ ॥ ध्रुवजी राजमार्गसे जा रहे
थे। उस समय जहाँ-तहाँ नगरकी शीलवती सुन्दरियाँ उन्हें देखनेको एकत्र हो रही थीं।
उन्होंने वात्सल्यभावसे अनेकों शुभाशीर्वाद देते हुए उनपर सफेद सरसों,
अक्षत,
दही,
जल,
दूर्वा,
पुष्प
और फलोंकी वर्षा की। इस प्रकार उनके मनोहर गीत सुनते हुए ध्रुवजीने अपने पिताके
महलमें प्रवेश किया ॥ ५८-५९ ॥ वह श्रेष्ठ भवन महामूल्य मणियोंकी लडिय़ोंसे सुसज्जित
था। उसमें अपने पिताजीके लाड़- प्यारका सुख भोगते हुए वे उसी प्रकार आनन्दपूर्वक
रहने लगे,
जैसे
स्वर्गमें देवतालोग रहते हैं ॥ ६० ॥ वहाँ दूधके फेनके समान सफेद और कोमल शय्याएँ,
हाथी-दाँतके
पलंग,
सुनहरी
कामदार परदे,
बहुमूल्य
आसन और बहुत-सा सोनेका सामान था ॥ ६१ ॥ उसकी स्फटिक और महामरकतमणि (पन्ने) की
दीवारोंमें रत्नोंकी बनी हुई स्त्रीमूर्तियोंपर रखे हुए मणिमय दीपक जगमगा रहे थे ॥
६२ ॥ उस महलके चारों ओर अनेक जातिके दिव्य वृक्षोंसे सुशोभित उद्यान थे,
जिनमें
नर और मादा पक्षियोंका कलरव तथा मतवाले भौंरोंका गुंजार होता रहता था ॥ ६३ ॥ उन
बगीचोंमें वैदूर्यमणि (पुखराज) की सीढिय़ोंसे सुशोभित बावलियाँ थीं—जिनमें
लाल,
नीले
और सफेद रंगके कमल खिले रहते थे तथा हंस, कारण्डव,
चकवा
एवं सारस आदि पक्षी क्रीडा करते रहते थे ॥ ६४ ॥
राजर्षि
उत्तानपाद ने अपने पुत्र के अति अद्भुत प्रभाव की बात देवर्षि नारद से पहले ही सुन
रखी थी;
अब
उसे प्रत्यक्ष वैसा ही देखकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ ॥ ६५ ॥ फिर यह देखकर कि अब
ध्रुव तरुण अवस्थाको प्राप्त हो गये हैं, अमात्यवर्ग
उन्हें आदरकी दृष्टिसे देखते हैं तथा प्रजाका भी उनपर अनुराग है,
उन्होंने
उन्हें निखिल भूमण्डलके राज्यपर अभिषिक्त कर दिया ॥ ६६ ॥ और आप वृद्धावस्था आयी
जानकर आत्मस्वरूपका चिन्तन करते हुए संसारसे विरक्त होकर वनको चल दिये ॥ ६७ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे ध्रुवराज्याभिषेक
वर्णनं नाम नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण)
पुस्तककोड 1535
से
🌺💟🥀 जय श्री हरि: !!🙏
जवाब देंहटाएंॐ नमो भगवते वासुदेवाय
श्रीकृष्ण गोविंद हरे मुरारे
हे नाथ नारायण वासुदेव: !!