सोमवार, 20 अक्टूबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - सत्रहवां अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

महाराज पृथुका पृथ्वीपर कुपित होना और पृथ्वीके द्वारा उनकी स्तुति करना

एवं मन्युमयीं मूर्तिं कृतान्तमिव बिभ्रतम् ।
प्रणता प्राञ्जलिः प्राह मही सञ्जातवेपथुः ॥ २८ ॥

धरोवाच -
नमः परस्मै पुरुषाय मायया
     विन्यस्तनानातनवे गुणात्मने ।
नमः स्वरूपानुभवेन निर्धुत
     द्रव्यक्रियाकारकविभ्रमोर्मये ॥ २९ ॥
येनाहमात्मायतनं विनिर्मिता
     धात्रा यतोऽयं गुणसर्गसङ्‌ग्रहः ।
स एव मां हन्तुमुदायुधः स्वराड्
     उपस्थितोऽन्यं शरणं कमाश्रये ॥ ३० ॥
य एतदादावसृजच्चराचरं
     स्वमाययात्माश्रययावितर्क्यया ।
तयैव सोऽयं किल गोप्तुमुद्यतः
     कथं नु मां धर्मपरो जिघांसति ॥ ३१ ॥
नूनं बतेशस्य समीहितं जनैः
     तन्मायया दुर्जययाकृतात्मभिः ।
न लक्ष्यते यस्त्वकरोदकारयद्
     योऽनेक एकः परतश्च ईश्वरः ॥ ३२ ॥
सर्गादि योऽस्यानुरुणद्धि शक्तिभिः
     द्रव्यक्रियाकारक चेतनात्मभिः ।
तस्मै समुन्नद्धनिरुद्धशक्तये
     नमः परस्मै पुरुषाय वेधसे ॥ ३३ ॥
स वै भवानात्मविनिर्मितं जगद्
     भूतेन्द्रियान्तःकरणात्मकं विभो ।
संस्थापयिष्यन्नज मां रसातलाद्
     अभ्युज्जहाराम्भस आदिसूकरः ॥ ३४ ॥
अपामुपस्थे मयि नाव्यवस्थिताः
     प्रजा भवानद्य रिरक्षिषुः किल ।
स वीरमूर्तिः समभूद् धराधरो
     यो मां पयस्युग्रशरो जिघांससि ॥ ३५ ॥
नूनं जनैरीहितमीश्वराणां
     अस्मद्विधैस्तद्गुरणसर्गमायया ।
न ज्ञायते मोहितचित्तवर्त्मभिः
     तेभ्यो नमो वीरयशस्करेभ्यः ॥ ३६ ॥

इस समय महाराज पृथु कालकी भाँति क्रोधमयी मूर्ति धारण किये हुए थे। उनके ये शब्द सुनकर धरती काँपने लगी और उसने अत्यन्त विनीतभावसे हाथ जोडक़र कहा ॥ २८ ॥
पृथ्वीने कहा—आप साक्षात् परमपुरुष हैं तथा अपनी मायासे अनेक प्रकारके शरीर धारणकर गुणमय जान पड़ते हैं; वास्तवमें आत्मानुभवके द्वारा आप अधिभूत, अध्यात्म और अधिदैवसम्बन्धी अभिमान और उससे उत्पन्न हुए राग-द्वेषादिसे सर्वथा रहित हैं। मैं आपको बार-बार नमस्कार करती हूँ ॥ २९ ॥ आप सम्पूर्ण जगत् के  विधाता हैं; आपने ही यह त्रिगुणात्मक सृष्टि रची है और मुझे समस्त जीवोंका आश्रय बनाया है। आप सर्वथा स्वतन्त्र हैं। प्रभो ! जब आप ही अस्त्र-शस्त्र लेकर मुझे मारनेको तैयार हो गये, तब मैं और किसकी शरणमें जाऊँ ? ॥ ३० ॥ कल्पके आरम्भमें आपने अपने आश्रित रहनेवाली अनिर्वचनीया मायासे ही इस चराचर जगत्की रचना की थी और उस माया- के ही द्वारा आप इसका पालन करनेके लिये तैयार हुए हैं। आप धर्मपरायण हैं; फिर भी मुझ गोरूप- धारिणीको किस प्रकार मारना चाहते हैं ? ॥ ३१ ॥ आप एक होकर भी मायावश अनेक रूप जान पड़ते हैं तथा आपने स्वयं ब्रह्माको रचकर उनसे विश्वकी रचना करायी है। आप साक्षात् सर्वेश्वर हैं, आपकी लीलाओंको अजितेन्द्रिय लोग कैसे जान सकते हैं ? उनकी बुद्धि तो आपकी दुर्जय मायासे विक्षप्ति हो रही है ॥ ३२ ॥ आप ही पञ्चभूत, इन्द्रिय, उनके अधिष्ठातृ देवता, बुद्धि और अहंकाररूप अपनी शक्तियोंकेद्वारा क्रमश: जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और संहार करते हैं। भिन्न-भिन्न कार्योंके लिये समय-समयपर आपकी शक्तियोंका आविर्भाव-तिरोभाव हुआ करता है। आप साक्षात् परम- पुरुष और जगद्विधाता हैं, आपको मेरा नमस्कार है ॥ ३३ ॥ अजन्मा प्रभो ! आप ही अपने रचे हुए भूत, इन्द्रिय और अन्त:करणरूप जगत्की स्थितिके लिये आदिवराहरूप होकर मुझे रसातलसे जलके बाहर लाये थे ॥ ३४ ॥ इस प्रकार एक बार तो मेरा उद्धार करके आपने ‘धराधर’ नाम पाया था; आज वही आप वीरमूर्तिसे जलके ऊपर नौकाके समान स्थित मेरे ही आश्रय रहनेवाली प्रजाकी रक्षा करनेके अभिप्रायसे पैने-पैने बाण चढ़ाकर दूध न देनेके अपराधमें मुझे मारना चाहते हैं ॥ ३५ ॥ इस त्रिगुणात्मक सृष्टिकी रचना करनेवाली आपकी मायासे मेरे जैसे साधारण जीवोंके चित्त मोहग्रस्त हो रहे हैं। मुझ जैसे लोग तो आपके भक्तोंकी लीलाओंका भी आशय नहीं समझ सकते, फिर आपकी किसी क्रियाका उद्देश्य न समझें तो इसमें आश्चर्य ही क्या है। अत: जो इन्द्रिय संयमादिके द्वारा वीरोचित यज्ञका विस्तार करते हैं, ऐसे आपके भक्तोंको भी नमस्कार है ॥ ३६ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे पृथुविजये धरित्रीनिग्रहो नाम सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


1 टिप्पणी:

  1. 🌹💟🥀ॐश्रीपरमात्मने नमः
    हे अनंत कोटि ब्रह्मांड के स्वामी
    हे जगतपति जगन्नाथ आपके चरण कमलों में हर क्षण सहस्त्रों सहस्त्रों कोटिश: वंदन 🙏🙏

    जवाब देंहटाएं

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - अठारहवां अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  चतुर्थ स्कन्ध – अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३) पृथ्वी-दोहन इति प्रियं हितं वाक्यं भुव आदाय भूपति...