रविवार, 19 अक्टूबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - सत्रहवां अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

महाराज पृथुका पृथ्वीपर कुपित होना और पृथ्वीके द्वारा उनकी स्तुति करना

लोके नाविन्दत त्राणं वैन्यान्मृत्योरिव प्रजाः ।
त्रस्ता तदा निववृते हृदयेन विदूयता ॥ १७ ॥
उवाच च महाभागं धर्मज्ञापन्नवत्सल ।
त्राहि मामपि भूतानां पालनेऽवस्थितो भवान् ॥ १८ ॥
स त्वं जिघांससे कस्माद् दीनामकृतकिल्बिषाम् ।
अहनिष्यत्कथं योषां धर्मज्ञ इति यो मतः ॥ १९ ॥
प्रहरन्ति न वै स्त्रीषु कृतागःस्वपि जन्तवः ।
किमुत त्वद्विधा राजन् करुणा दीनवत्सलाः ॥ २० ॥
मां विपाट्याजरां नावं यत्र विश्वं प्रतिष्ठितम् ।
आत्मानं च प्रजाश्चेमाः कथं अम्भसि धास्यसि ॥ २१ ॥

पृथुरुवाच -
वसुधे त्वां वधिष्यामि मच्छासनपराङ्‌मुखीम् ।
भागं बर्हिषि या वृङ्‌क्ते न तनोति च नो वसु ॥ २२ ॥
यवसं जग्ध्यनुदिनं नैव दोग्ध्यौधसं पयः ।
तस्यामेवं हि दुष्टायां दण्डो नात्र न शस्यते ॥ २३ ॥
त्वं खल्वोषधिबीजानि प्राक्सृष्टानि स्वयम्भुवा ।
न मुञ्चस्यात्मरुद्धानि मामवज्ञाय मन्दधीः ॥ २४ ॥
अमूषां क्षुत्परीतानां आर्तानां परिदेवितम् ।
शमयिष्यामि मद्बातणैः भिन्नायास्तव मेदसा ॥ २५ ॥
पुमान्योषिदुत क्लीब आत्मसम्भावनोऽधमः ।
भूतेषु निरनुक्रोशो नृपाणां तद्वधोऽवधः ॥ २६ ॥
त्वां स्तब्धां दुर्मदां नीत्वा मायागां तिलशः शरैः ।
आत्मयोगबलेनेमा धारयिष्याम्यहं प्रजाः ॥ २७ ॥

जिस प्रकार मनुष्यको मृत्युसे कोई नहीं बचा सकता, उसी प्रकार उसे त्रिलोकीमें वेनपुत्र पृथुसे बचानेवाला कोई भी न मिला। तब वह अत्यन्त भयभीत होकर दु:खित चित्तसे पीछेकी ओर लौटी ॥ १७ ॥ और महाभाग पृथुजीसे कहने लगी—‘धर्मके तत्त्वको जाननेवाले शरणागतवत्सल राजन् ! आप तो सभी प्राणियोंकी रक्षा करनेमें तत्पर हैं, आप मेरी भी रक्षा कीजिये ॥ १८ ॥ मैं अत्यन्त दीन और निरपराध हूँ, आप मुझे क्यों मारना चाहते हैं ? इसके सिवा आप तो धर्मज्ञ माने जाते हैं; फिर मुझ स्त्रीका वध आप कैसे कर सकेंगे ? ॥ १९ ॥ स्त्रियाँ कोई अपराध करें, तो साधारण जीव भी उनपर हाथ नहीं उठाते; फिर आप जैसे करुणामय और दीनवत्सल तो ऐसा कर ही कैसे सकते हैं ? ॥ २० ॥ मैं तो एक सुदृढ़ नौकाके समान हूँ, सारा जगत् मेरे ही आधारपर स्थित हैं। मुझे तोडक़र आप अपनेको और अपनी प्रजाको जलके ऊपर कैसे रखेंगे ?’ ॥ २१ ॥
महाराज पृथुने कहा—पृथ्वी ! तू मेरी आज्ञाका उल्लङ्घन करनेवाली है। तू यज्ञमें देवतारूपसे भाग तो लेती है, किन्तु उसके बदलेमें हमें अन्न नहीं देती; इसलिये आज मैं तुझे मार डालूँगा ॥ २२ ॥ तू जो प्रतिदिन हरी-हरी घास खा जाती है और अपने थनका दूध नहीं देती—ऐसी दुष्टता करनेपर तुझे दण्ड देना अनुचित नहीं कहा जा सकता ॥ २३ ॥ तू नासमझ है, तूने पूर्वकालमें ब्रह्माजीके उत्पन्न किये हुए अन्नादिके बीजोंको अपनेमें लीन कर लिया है और अब मेरी भी परवा न करके उन्हें अपने गर्भसे निकालती नहीं ॥ २४ ॥ अब मैं अपने बाणोंसे तुझे छिन्न-भिन्न कर तेरे मेदेसे इन क्षुधातुर और दीन प्रजाजनोंका करुण-क्रन्दन शान्त करूँगा ॥ २५ ॥ जो दुष्ट अपना ही पोषण करनेवाला तथा अन्य प्राणियोंके प्रति निर्दय हो—वह पुरुष, स्त्री अथवा नपुंसक कोई भी हो—उसका मारना राजाओंके लिये न मारनेके ही समान है ॥ २६ ॥ तू बड़ी गर्वीली और मदोन्मत्ता है; इस समय मायासे ही यह गौका रूप बनाये हुए है। मैं बाणोंसे तेरे टुकड़े-टुकड़े करके अपने योगबलसे प्रजाको धारण करूँगा ॥ २७ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


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