॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध – सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
महाराज पृथुका पृथ्वीपर कुपित होना और पृथ्वीके द्वारा उनकी स्तुति करना
सूत उवाच –
चोदितो विदुरेणैवं वासुदेवकथां प्रति ।
प्रशस्य तं प्रीतमना मैत्रेयः प्रत्यभाषत ॥ ८ ॥
मैत्रेय उवाच –
यदाभिषिक्तः पृथुरङ्ग विप्रैः
आमंत्रितो जनतायाश्च पालः ।
प्रजा निरन्ने क्षितिपृष्ठ एत्य
क्षुत्क्षामदेहाः पतिमभ्यवोचन् ॥ ९ ॥
वयं राजञ्जाठरेणाभितप्ता
यथाग्निना कोटरस्थेन वृक्षाः ।
त्वामद्य याताः शरणं शरण्यं
यः साधितो वृत्तिकरः पतिर्नः ॥ १० ॥
तन्नो भवानीहतु रातवेऽन्नं
क्षुधार्दितानां नरदेवदेव ।
यावन्न नङ्क्ष्यामह उज्झितोर्जा
वार्तापतिस्त्वं किल लोकपालः ॥ ११ ॥
मैत्रेय उवाच –
पृथुः प्रजानां करुणं निशम्य परिदेवितम् ।
दीर्घं दध्यौ कुरुश्रेष्ठ निमित्तं सोऽन्वपद्यत ॥ १२ ॥
इति व्यवसितो बुद्ध्या प्रगृहीतशरासनः ।
सन्दधे विशिखं भूमेः क्रुद्धस्त्रिपुरहा यथा ॥ १३ ॥
प्रवेपमाना धरणी निशाम्योदायुधं च तम् ।
गौः सत्यपाद्रवद्भीशता मृगीव मृगयुद्रुता ॥ १४ ॥
तामन्वधावत्तद्वैन्यः कुपितोऽत्यरुणेक्षणः ।
शरं धनुषि सन्धाय यत्र यत्र पलायते ॥ १५ ॥
सा दिशो विदिशो देवी रोदसी चान्तरं तयोः ।
धावन्ती तत्र तत्रैनं ददर्शानूद्यतायुधम् ॥ १६ ॥
श्रीसूतजी कहते हैं—जब विदुरजीने भगवान् वासुदेवकी कथा कहनेके लिये इस प्रकार प्रेरणा की, तब श्रीमैत्रेयजी प्रसन्नचित्तसे उनकी प्रशंसा करते हुए कहने लगे ॥ ८ ॥
श्रीमैत्रेयजीने कहा—विदुरजी ! ब्राह्मणोंने महाराज पृथुका राज्याभिषेक करके उन्हें प्रजाका रक्षक उद्घोषित किया। इन दिनों पृथ्वी अन्नहीन हो गयी थी, इसलिये भूखके कारण प्रजाजनोंके शरीर सूखकर काँटे हो गये थे। उन्होंने अपने स्वामी पृथुके पास आकर कहा ॥ ९ ॥ ‘राजन् ! जिस प्रकार कोटरमें सुलगती हुई आगसे पेड़ जल जाता है, उसी प्रकार हम पेटकी भीषण ज्वालासे जले जा रहे हैं। आप शरणागतोंकी रक्षा करनेवाले हैं और हमारे अन्नदाता प्रभु बनाये गये हैं, इसलिये हम आपकी शरणमें आये हैं ॥ १० ॥ आप समस्त लोकोंकी रक्षा करनेवाले हैं, आप ही हमारी जीविकाके भी स्वामी हैं। अत: राजराजेश्वर ! आप हम क्षुधापीडि़तोंको शीघ्र ही अन्न देनेका प्रबन्ध कीजिये; ऐसा न हो कि अन्न मिलनेसे पहले ही हमारा अन्त हो जाय’ ॥ ११ ॥
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—कुरुवर ! प्रजाका करुणक्रन्दन सुनकर महाराज पृथु बहुत देरतक विचार करते रहे। अन्तमें उन्हें अन्नाभावका कारण मालूम हो गया ॥ १२ ॥ ‘पृथ्वीने स्वयं ही अन्न एवं औषधादिको अपने भीतर छिपा लिया है’ अपनी बुद्धिसे इस बातका निश्चय करके उन्होंने अपना धनुष उठाया और त्रिपुरविनाशक भगवान् शङ्करके समान अत्यन्त क्रोधित होकर पृथ्वीको लक्ष्य बनाकर बाण चढ़ाया ॥ १३ ॥ उन्हें शस्त्र उठाये देख पृथ्वी काँप उठी और जिस प्रकार व्याधके पीछा करनेपर हरिणी भागती है, उसी प्रकार वह डरकर गौका रूप धारण करके भागने लगी ॥ १४ ॥
यह देखकर महाराज पृथुकी आँखें क्रोधसे लाल हो गयीं। वे जहाँ-जहाँ पृथ्वी गयी, वहाँ-वहाँ धनुषपर बाण चढ़ाये उसके पीछे लगे रहे ॥ १५ ॥ दिशा, विदिशा, स्वर्ग, पृथ्वी और अन्तरिक्षमें जहाँ-जहाँ भी वह दौडक़र जाती, वहीं उसे महाराज पृथु हथियार उठाये अपने पीछे दिखायी देते ॥ १६ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
🌹💖🥀 जय श्री हरि: !!🙏
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हे गोविंद हे गोपाल
हे करुणामय दीनदयाल
नारायण नारायण नारायण नारायण