बुधवार, 22 अक्टूबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - अठारहवां अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

पृथ्वी-दोहन

यक्षरक्षांसि भूतानि पिशाचाः पिशिताशनाः ।
भूतेशवत्सा दुदुहुः कपाले क्षतजासवम् ॥ २१ ॥
तथाहयो दन्दशूकाः सर्पा नागाश्च तक्षकम् ।
विधाय वत्सं दुदुहुः बिलपात्रे विषं पयः ॥ २२ ॥
पशवो यवसं क्षीरं वत्सं कृत्वा च गोवृषम् ।
अरण्यपात्रे चाधुक्षन् मृगेन्द्रेण च दंष्ट्रिणः ॥ २३ ॥
क्रव्यादाः प्राणिनः क्रव्यं दुदुहुः स्वे कलेवरे ।
सुपर्णवत्सा विहगाः चरं च अचरमेव च ॥ २४ ॥
वटवत्सा वनस्पतयः पृथग्रसमयं पयः ।
गिरयो हिमवद्वत्सा नानाधातून् स्वसानुषु ॥ २५ ॥
सर्वे स्वमुख्यवत्सेन स्वे स्वे पात्रे पृथक्पयः ।
सर्वकामदुघां पृथ्वीं दुदुहुः पृथुभाविताम् ॥ २६ ॥
एवं पृथ्वादयः पृथ्वीं अन्नादाः स्वन्नमात्मनः ।
दोहवत्सादिभेदेन क्षीरभेदं कुरूद्वह ॥ २७ ॥
ततो महीपतिः प्रीतः सर्वकामदुघां पृथुः ।
दुहितृत्वे चकारेमां प्रेम्णा दुहितृवत्सलः ॥ २८ ॥
चूर्णयन्स्वधनुष्कोट्या गिरिकूटानि राजराट् ।
भूमण्डलं इदं वैन्यः प्रायश्चक्रे समं विभुः ॥ २९ ॥
अथास्मिन् भगवान् वैन्यः प्रजानां वृत्तिदः पिता ।
निवासान् कल्पयां चक्रे तत्र तत्र यथार्हतः ॥ ३० ॥
ग्रामान्पुरः पत्तनानि दुर्गाणि विविधानि च ।
घोषान् व्रजान् सशिबिराब् आकरान् खेटखर्वटान् ॥ ३१ ॥
प्राक्पृथोरिह नैवैषा पुरग्रामादिकल्पना ।
यथासुखं वसन्ति स्म तत्र तत्राकुतोभयाः ॥ ३२ ॥

इसी प्रकार यक्ष-राक्षस तथा भूत-पिशाचादि मांसाहारियोंने भूतनाथ रुद्रको बछड़ा बनाकर कपालरूप पात्रमें रुधिरासवरूप दूध दुहा ॥ २१ ॥ बिना फनवाले साँप, फनवाले साँप, नाग और बिच्छू आदि विषैले जन्तुओं ने तक्षक को बछड़ा बनाकर मुखरूप पात्र में विषरूप दूध दुहा ॥ २२ ॥ पशुओं ने भगवान्‌ रुद्रके वाहन बैल को वत्स बनाकर वनरूप पात्र में तृणरूप दूध दुहा। बड़ी-बड़ी दाढ़ोंवाले मांसभक्षी जीवोंने सिंहरूप बछड़ेके द्वारा अपने शरीररूप पात्रमें कच्चा मांसरूप दूध दुहा तथा गरुडजीको वत्स बनाकर पक्षियोंने कीट-पतङ्गादि चर और फलादि अचर पदार्थोंको दुग्धरूपसे दुहा ॥ २३-२४ ॥ वृक्षोंने वटको वत्स बनाकर अनेक प्रकारका रसरूप दूध दुहा और पर्वतोंने हिमालयरूप बछड़ेके द्वारा अपने शिखररूप पात्रोंमें अनेक प्रकारकी धातुओंको दुहा ॥ २५ ॥ पृथ्वी तो सभी अभीष्ट वस्तुओंको देनेवाली है और इस समय वह पृथुजीके अधीन थी। अत: उससे सभीने अपनी-अपनी जातिके मुखियाको बछड़ा बनाकर अलग-अलग पात्रोंमें भिन्न-भिन्न प्रकारके पदार्थोंको दूधके रूपमें दुह लिया ॥ २६ ॥
कुरुश्रेष्ठ विदुरजी ! इस प्रकार पृथु आदि सभी अन्न-भोजियोंने भिन्न-भिन्न दोहन-पात्र और वत्सोंके द्वारा अपने-अपने विभिन्न अन्नरूप दूध पृथ्वीसे दुहे ॥ २७ ॥ इससे महाराज पृथु ऐसे प्रसन्न हुए कि सर्वकामदुहा पृथ्वीके प्रति उनका पुत्रीके समान स्नेह हो गया और उसे उन्होंने अपनी कन्याके रूपमें स्वीकार कर लिया ॥ २८ ॥ फिर राजाधिराज पृथुने अपने धनुषकी नोकसे पर्वतोंको फोडक़र इस सारे भूमण्डलको प्राय: समतल कर दिया ॥ २९ ॥ वे पिताके समान अपनी प्रजाके पालन-पोषणकी व्यवस्थामें लगे हुए थे। उन्होंने इस समतल भूमिमें प्रजावर्गके लिये जहाँ-तहाँ यथायोग्य निवासस्थानोंका विभाग किया ॥ ३० ॥ अनेकों गाँव, कस्बे, नगर, दुर्ग, अहीरोंकी बस्ती, पशुओंके रहनेके स्थान, छावनियाँ, खानें, किसानोंके गाँव और पहाड़ोंकी तलहटीके गाँव बसाये ॥ ३१ ॥ महाराज पृथुसे पहले इस पृथ्वीतलपर पुर-ग्रामादिका विभाग नहीं था; सब लोग अपने-अपने सुभीतेके अनुसार बेखटके जहाँ-तहाँ बस जाते थे ॥ ३२ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे अष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


1 टिप्पणी:

  1. 💐🌿💐जय श्रीहरि: !!🙏
    ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
    नारायण नारायण नारायण नारायण

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