बुधवार, 22 अक्टूबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - उन्नीसवां अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

पुरञ्जनोपाख्यानका तात्पर्य

प्राचीनबर्हिरुवाच –

भगवंस्ते वचोऽस्माभिः न सम्यक् अवगम्यते ।
कवयस्तद्विजानन्ति न वयं कर्ममोहिताः ॥ १ ॥

नारद उवाच –

पुरुषं पुरञ्जनं विद्याद् यद् व्यनक्त्यात्मनः पुरम् ।
एक द्वि त्रि चतुष्पादं बहुपादमपादकम् ॥ २ ॥
योऽविज्ञाताहृतस्तस्य पुरुषस्य सखेश्वरः ।
यन्न विज्ञायते पुम्भिः नामभिर्वा क्रियागुणैः ॥ ३ ॥
यदा जिघृक्षन् पुरुषः कार्त्स्न्येन प्रकृतेर्गुणान् ।
नवद्वारं द्विहस्ताङ्‌‌घ्रि तत्रामनुत साध्विति ॥ ४ ॥
बुद्धिं तु प्रमदां विद्यान् ममाहमिति यत्कृतम् ।
यामधिष्ठाय देहेऽस्मिन् पुमान् भुङ्‌क्तेऽक्षभिर्गुणान् ॥ ५ ॥
सखाय इन्द्रियगणा ज्ञानं कर्म च यत्कृतम् ।
सख्यस्तद्‌वृत्तयः प्राणः पञ्चवृत्तिर्यथोरगः ॥ ॥ ६ ॥
बृहद्‍बलं मनो विद्याद् उभयेन्द्रियनायकम् ।
पञ्चालाः पञ्च विषया यन्मध्ये नवखं पुरम् ॥ ७ ॥
अक्षिणी नासिके कर्णौ मुखं शिश्नगुदौ इति ।
द्वे द्वे द्वारौ बहिर्याति यस्तद् इन्द्रियसंयुतः ॥ ८ ॥
अक्षिणी नासिके आस्यं इति पञ्च पुरः कृताः ।
दक्षिणा दक्षिणः कर्ण उत्तरा चोत्तरः स्मृतः ॥ ९ ॥
पश्चिमे इत्यधो द्वारौ गुदं शिश्नमिहोच्यते ।
खद्योताऽऽविर्मुखी चात्र नेत्रे एकत्र निर्मिते ।
रूपं विभ्राजितं ताभ्यां विचष्टे चक्षुषेश्वरः ॥ १० ॥

राजा प्राचीनबर्हिने कहा—भगवन् ! मेरी समझमें आपके वचनोंका अभिप्राय पूरा-पूरा नहीं आ रहा है। विवेकी पुरुष ही इनका तात्पर्य समझ सकते हैं, हम कर्ममोहित जीव नहीं ॥ १ ॥

श्रीनारदजीने कहा—राजन् ! पुरञ्जन (नगरका निर्माता) जीव है—जो अपने लिये एक, दो, तीन, चार अथवा बहुत पैरोंवाला या बिना पैरोंका शरीररूप पुर तैयार कर लेता है ॥ २ ॥ उस जीवका सखा जो अविज्ञात नामसे कहा गया है, वह ईश्वर है; क्योंकि किसी भी प्रकारके नाम, गुण अथवा कर्मोंसे जीवोंको उसका पता नहीं चलता ॥ ३ ॥ जीवने जब सुख-दु:खरूप सभी प्राकृत विषयोंको भोगनेकी इच्छा की तब उसने दूसरे शरीरोंकी अपेक्षा नौ द्वार, दो हाथ और दो पैरोंवाला मानव-देह ही पसंद किया ॥ ४ ॥ बुद्धि अथवा अविद्याको ही तुम पुरञ्जनी नामकी स्त्री जानो; इसीके कारण देह और इन्द्रिय आदिमें मैं-मेरेपनका भाव उत्पन्न होता है और पुरुष इसीका आश्रय लेकर शरीरमें इन्द्रियोंद्वारा विषयोंको भोगता है ॥ ५ ॥ दस इन्द्रियाँ ही उसके मित्र हैं, जिनसे कि सब प्रकारके ज्ञान और कर्म होते हैं। इन्द्रियोंकी वृत्तियाँ ही उसकी सखियाँ और प्राण-अपान- व्यान-उदान-समानरूप पाँच वृत्तियोंवाला प्राणवायु ही नगरकी रक्षा करनेवाला पाँच फनका सर्प है ॥ ६ ॥ दोनों प्रकारकी इन्द्रियोंके नायक मनको ही ग्यारहवाँ महाबली योद्धा जानना चाहिये। शब्दादि पाँच विषय ही पाञ्चाल देश हैं, जिसके बीचमें वह नौ द्वारोंवाला नगर बसा हुआ है ॥ ७ ॥
उस नगरमें जो एक-एक स्थानपर दो-दो द्वार बताये गये थे—वे दो नेत्रगोलक, दो नासाछिद्र और दो कर्णछिद्र हैं। इनके साथ मुख, लिङ्ग और गुदा—ये तीन और मिलाकर कुल नौ द्वार हैं; इन्हींमें होकर वह जीव इन्द्रियोंके साथ बाह्य विषयोंमें जाता है ॥ ८ ॥ इसमें दो नेत्रगोलक, दो नासाछिद्र और एक मुख—ये पाँच पूर्वके द्वार हैं; दाहिने कानको दक्षिणका और बायें कानको उत्तरका द्वार समझना चाहिये ॥ ९ ॥ गुदा और लिङ्ग—ये नीचेके दो छिद्र पश्चिमके द्वार हैं। खद्योता और आविर्मुखी नामके जो दो द्वार एक स्थानपर बतलाये थे, वे नेत्रगोलक हैं तथा रूप विभ्राजित नामका देश है, जिसका इन द्वारोंसे जीव चक्षु-इन्द्रियकी सहायतासे अनुभव करता है। (चक्षु-इन्द्रियोंको ही पहले द्युमान् नामका सखा कहा गया है) ॥ १० ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


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