॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध – इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)
महाराज पृथुका अपनी प्रजाको उपदेश
यत्पादसेवाभिरुचिः तपस्विनां
अशेषजन्मोपचितं मलं धियः ।
सद्यः क्षिणोत्यन्वहमेधती सती
यथा पदाङ्गुष्ठविनिःसृता सरित् ॥ ३१ ॥
विनिर्धुताशेषमनोमलः पुमान्
असङ्गविज्ञानविशेषवीर्यवान् ।
यदङ्घ्रिमूले कृतकेतनः पुनः
न संसृतिं क्लेशवहां प्रपद्यते ॥ ३२ ॥
तमेव यूयं भजतात्मवृत्तिभिः
मनोवचःकायगुणैः स्वकर्मभिः ।
अमायिनः कामदुघाङ्घ्रिपङ्कजं
यथाधिकारावसितार्थसिद्धयः ॥ ३३ ॥
असौ इहानेकगुणोऽगुणोऽध्वरः
पृथक् विधद्रव्यगुणक्रियोक्तिभिः ।
सम्पद्यतेऽर्थाशयलिङ्गनामभिः
विशुद्धविज्ञानघनः स्वरूपतः ॥ ३४ ॥
प्रधानकालाशयधर्मसङ्ग्रहे
शरीर एष प्रतिपद्य चेतनाम् ।
क्रियाफलत्वेन विभुर्विभाव्यते
यथानलो दारुषु तद्गुतणात्मकः ॥ ३५ ॥
अहो ममामी वितरन्त्यनुग्रहं
हरिं गुरुं यज्ञभुजामधीश्वरम् ।
स्वधर्मयोगेन यजन्ति मामका
निरन्तरं क्षोणितले दृढव्रताः ॥ ३६ ॥
जिनके चरणकमलोंकी सेवाके लिये निरन्तर बढऩेवाली अभिलाषा उन्हींके चरणनख से निकली हुई गङ्गाजी के समान, संसारतापसे संतप्त जीवोंके समस्त जन्मों के सञ्चित मनोमलको तत्काल नष्ट कर देती है, जिनके चरणतलका आश्रय लेनेवाला पुरुष सब प्रकारके मानसिक दोषोंको धो डालता तथा वैराग्य और तत्त्वसाक्षात्काररूप बल पाकर फिर इस दु:खमय संसारचक्रमें नहीं पड़ता और जिनके चरणकमल सब प्रकारकी कामनाओंको पूर्ण करनेवाले हैं—उन प्रभुको आपलोग अपनी-अपनी आजीविकाके उपयोगी वर्णाश्रमोचित अध्यापनादि कर्मों तथा ध्यान-स्तुति-पूजादि मानसिक, वाचिक एवं शारीरिक क्रियाओंके द्वारा भजें। हृदयमें किसी प्रकारका कपट न रखें तथा यह निश्चय रखें कि हमें अपने-अपने अधिकारानुसार इसका फल अवश्य प्राप्त होगा ॥ ३१—३३ ॥
भगवान् स्वरूपत: विशुद्ध विज्ञानघन और समस्त विशेषणोंसे रहित हैं; किन्तु इस कर्ममार्गमें जौ-चावल आदि विविध द्रव्य, शुक्लादि गुण, अवघात (कूटना) आदि क्रिया एवं मन्त्रोंके द्वारा और अर्थ, आशय (सङ्कल्प), लिङ्ग (पदार्थ-शक्ति) तथा ज्योतिष्टोम आदि नामोंसे सम्पन्न होनेवाले, अनेक विशेषणयुक्त यज्ञके रूपमें प्रकाशित होते हैं ॥ ३४ ॥ जिस प्रकार एक ही अग्नि भिन्न-भिन्न काष्ठोंमें उन्हींके आकारादि के अनुरूप भासती है, उसी प्रकार वे सर्वव्यापक प्रभु परमानन्दस्वरूप होते हुए भी प्रकृति, काल, वासना और अदृष्टसे उत्पन्न हुए शरीरमें विषयाकार बनी हुई बुद्धिमें स्थित होकर उन यज्ञ-यागादि क्रियाओंके फलरूपसे अनेक प्रकारके जान पड़ते हं ॥ ३५ ॥ अहो ! इस पृथ्वीतलपर मेरे जो प्रजाजन यज्ञभोक्ताओं के अधीश्वर सर्वगुरु श्रीहरि का एकनिष्ठ-भाव से अपने- अपने धर्मों के द्वारा निरन्तर पूजन करते हैं, वे मुझपर बड़ी कृपा करते हैं ॥ ३६ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नमः 💐💐💐💐💐🙏🙏🙏🙏
जवाब देंहटाएं🌹💖🥀जय श्री हरि: !!🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
श्रीकृष्ण गोविंद हरे मुरारे
हे नाथ नारायण वासुदेव: !!