॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
महाराज पृथुका अपनी प्रजाको उपदेश
राजोवाच -
सभ्याः श्रृणुत भद्रं वः साधवो य इहागताः ।
सत्सु जिज्ञासुभिर्धर्मं आवेद्यं स्वमनीषितम् ॥ २१ ॥
अहं दण्डधरो राजा प्रजानामिह योजितः ।
रक्षिता वृत्तिदः स्वेषु सेतुषु स्थापिता पृथक् ॥ २२ ॥
तस्य मे तदनुष्ठानाद् यानाहुर्ब्रह्मवादिनः ।
लोकाः स्युः कामसन्दोहा यस्य तुष्यति दिष्टदृक् ॥ २३ ॥
य उद्धरेत्करं राजा प्रजा धर्मेष्वशिक्षयन् ।
प्रजानां शमलं भुङ्क्ते भगं च स्वं जहाति सः ॥ २४ ॥
तत्प्रजा भर्तृपिण्डार्थं स्वार्थमेवानसूयवः ।
कुरुताधोक्षजधियः तर्हि मेऽनुग्रहः कृतः ॥ २५ ॥
यूयं तदनुमोदध्वं पितृदेवर्षयोऽमलाः ।
कर्तुः शास्तुरनुज्ञातुः तुल्यं यत्प्रेत्य तत्फलम् ॥ २६ ॥
अस्ति यज्ञपतिर्नाम केषाञ्चिदर्हसत्तमाः ।
इहामुत्र च लक्ष्यन्ते ज्योत्स्नावत्यः क्वचिद्भु वः ॥ २७ ॥
मनोरुत्तानपादस्य ध्रुवस्यापि महीपतेः ।
प्रियव्रतस्य राजर्षेः अङ्गस्यास्मत्पितुः पितुः ॥ २८ ॥
ईदृशानां अथान्येषां अजस्य च भवस्य च ।
प्रह्लादस्य बलेश्चापि कृत्यमस्ति गदाभृता ॥ २९ ॥
दौहित्रादीन् ऋते मृत्योः शोच्यान् धर्मविमोहितान् ।
वर्गस्वर्गापवर्गाणां प्रायेणैकात्म्यहेतुना ॥ ३० ॥
राजा पृथुने कहा—सज्जनो ! आपका कल्याण हो आप महानुभाव, जो यहाँ पधारे हैं, मेरी प्रार्थना सुने :- जिज्ञासु पुरुषोंको चाहिये कि संत-समाजमे अपने निश्चयका निवेदन करें ॥ २१ ॥ इस लोकमे मुझे प्रजजनोका शासन, उनकी रक्षा, उनकी आजिविका का प्रबंध तथा उन्हें अलग अपनी मर्यादामे रखनेके लिए राजा बनाया गया है ॥ २२ ॥ अतः इनका यथावत पालन करनेसे मुझे उन्ही मनोरथ पूर्ण करनेवाले लोकोंकी प्राप्ति होनी चाहिए, जो वेदवादी मुनियों के मतानुसार सम्पूर्ण कर्मोंके साक्षी श्रीहरिके प्रसन्न होने पर मिलते है ॥ २३ ॥ जो रजा प्रजा को धर्म मार्ग कि शिक्षा न देकर केवल उससे कर वसूल करने मे वह केवल प्रजा के पाप का ही भागी होता है और अपने ऐश्वर्यसे हाथ धो बैठता है ॥ २४ ॥ अत: प्रिय प्रजाजन ! अपने इस राजाका परलोकमें हित करनेके लिये आप लोग परस्पर दोषदृष्टि छोडक़र हृदयसे भगवान्को याद रखते हुए अपने-अपने कर्तव्यका पालन करते रहिये; क्योंकि आपका स्वार्थ भी इसीमें है और इस प्रकार मुझपर भी आपका बड़ा अनुग्रह होगा ॥ २५ ॥ विशुद्धचित्त देवता, पितर और महर्षिगण ! आप भी मेरी इस प्रार्थनाका अनुमोदन कीजिये; क्योंकि कोई भी कर्म हो, मरनेके अनन्तर उसके कर्ता, उपदेष्टा और समर्थकको उसका समान फल मिलता है ॥ २६ ॥ माननीय सज्जनो ! किन्हीं श्रेष्ठ महानुभावोंके मतमें तो कर्मोंका फल देनेवाले भगवान् यज्ञपति ही हैं; क्योंकि इहलोक और परलोक दोनों ही जगह कोई-कोई शरीर बड़े तेजोमय देखे जाते हैं ॥ २७ ॥ मनु, उत्तानपाद, महीपति ध्रुव, राजर्षि प्रियव्रत, हमारे दादा अङ्ग तथा ब्रह्मा, शिव, प्रह्लाद, बलि और इसी कोटि के अन्यान्य महानुभावों के मतमें तो धर्म-अर्थ-काम-मोक्षरूप चतुर्वर्ग तथा स्वर्ग और अपवर्गके स्वाधीन नियामक, कर्मफलदातारूपसे भगवान् गदाधरकी आवश्यकता है ही। इस विषयमें तो केवल मृत्युके दौहित्र वेन आदि कुछ शोचनीय और धर्मविमूढ़ लोगोंका ही मतभेद है। अत: उसका कोई विशेष महत्त्व नहीं हो सकता ॥ २८—३० ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
🌹💟🥀ॐ श्रीपरमात्मने नमः
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श्रीकृष्ण गोविंद हरे मुरारे
हे नाथ नारायण वासुदेव: !!