॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
महाराज पृथुका अपनी प्रजाको उपदेश
सूत उवाच -
तदादिराजस्य यशो विजृम्भितं
     गुणैरशेषैर्गुणवत्सभाजितम् ।
क्षत्ता महाभागवतः सदस्पते
     कौषारविं प्राह गृणन्तमर्चयन् ॥ ८ ॥
विदुर उवाच -
सोऽभिषिक्तः पृथुर्विप्रैः लब्धाशेषसुरार्हणः ।
बिभ्रत् स वैष्णवं तेजो बाह्वोर्याभ्यां दुदोह गाम् ॥ ९ ॥
को न्वस्य कीर्तिं न शृणोत्यभिज्ञो
     यद्विक्रमोच्छिष्टमशेषभूपाः ।
लोकाः सपाला उपजीवन्ति कामं
     अद्यापि तन्मे वद कर्म शुद्धम् ॥ १० ॥
मैत्रेय उवाच -
गङ्गायमुनयोर्नद्योः अन्तरा क्षेत्रमावसन् ।
आरब्धानेव बुभुजे भोगान् पुण्यजिहासया ॥ ११ ॥
सर्वत्रास्खलितादेशः सप्तद्वीपैकदण्डधृक् ।
अन्यत्र ब्राह्मणकुलाद् अन्यत्राच्युतगोत्रतः ॥ १२ ॥
एकदासीन् महासत्र दीक्षा तत्र दिवौकसाम् ।
समाजो ब्रह्मर्षीणां च राजर्षीणां च सत्तम ॥ १३ ॥
तस्मिन् अर्हत्सु सर्वेषु स्वर्चितेषु यथार्हतः ।
उत्थितः सदसो मध्ये ताराणां उडुराडिव ॥ १४ ॥
प्रांशुः पीनायतभुजो गौरः कञ्जारुणेक्षणः ।
सुनासः सुमुखः सौम्यः पीनांसः सुद्विजस्मितः ॥ १५ ॥
व्यूढवक्षा बृहच्छ्रोणिः वलिवल्गुदलोदरः ।
आवर्तनाभिरोजस्वी काञ्चनोरुरुदग्रपात् ॥ १६ ॥
सूक्ष्मवक्रासितस्निग्ध मूर्धजः कम्बुकन्धरः ।
महाधने दुकूलाग्र्ये परिधायोपवीय च ॥ १७ ॥
व्यञ्जिताशेषगात्रश्रीः नियमे न्यस्तभूषणः ।
कृष्णाजिनधरः श्रीमान् कुशपाणिः कृतोचितः ॥ १८ ॥
शिशिरस्निग्धताराक्षः समैक्षत समन्ततः ।
ऊचिवान् इदमुर्वीशः सदः संहर्षयन्निव ॥ १९ ॥
चारु चित्रपदं श्लक्ष्णं मृष्टं गूढमविक्लवम् ।
सर्वेषां उपकारार्थं तदा अनुवदन्निव ॥ २० ॥
सूतजी कहते हैं—मुनिवर शौनकजी ! इस प्रकार भगवान् मैत्रेयके मुखसे आदिराज पृथुका अनेक प्रकारके गुणोंसे सम्पन्न और गुणवानोंद्वारा प्रशंसित विस्तृत सुयश सुनकर परम भागवत विदुरजी ने उनका अभिनन्दन करते हुए कहा ॥ ८ ॥
विदुरजी बोले—ब्रह्मन् ! ब्राह्मणोंने पृथुका अभिषेक किया। समस्त देवताओंने उन्हें उपहार दिये। उन्होंने अपनी भुजाओंमें वैष्णव तेजको धारण किया और उससे पृथ्वीका दोहन किया ॥ ९ ॥ उनके उस पराक्रमके उच्छिष्टरूप विषयभोगोंसे ही आज भी सम्पूर्ण राजा तथा लोकपालोंके सहित समस्त लोक इच्छानुसार जीवन-निर्वाह करते हैं। भला, ऐसा कौन समझदार होगा जो उनकी पवित्र कीर्ति सुनना न चाहेगा। अत: अभी आप मुझे उनके कुछ और भी पवित्र चरित्र सुनाइये ॥ १० ॥
श्रीमैत्रेयजीने कहा—साधुश्रेष्ठ विदुरजी ! महाराज पृथु गङ्गा और यमुनाके मध्यवर्ती देशमें निवास कर अपने पुण्यकर्मोंके क्षयकी इच्छासे प्रारब्धवश प्राप्त हुए भोगोंको ही भोगते थे ॥ ११ ॥ ब्राह्मणवंश और भगवान्के सम्बन्धी विष्णुभक्तोंको छोडक़र उनका सातों द्वीपोंके सभी पुरुषोंपर अखण्ड एवं अबाध शासन था ॥ १२ ॥ एक बार उन्होंने एक महासत्रकी दीक्षा ली; उस समय वहाँ देवताओं, ब्रहमर्षियों और राजर्षियोंका बहुत बड़ा समाज एकत्र हुआ ॥ १३ ॥ उस समाजमें महाराज पृथुने उन पूजनीय अतिथियोंका यथायोग्य सत्कार किया और फिर उस सभामें, नक्षत्रमण्डलमें चन्द्रमाके समान खड़े हो गये ॥ १४ ॥ उनका शरीर ऊँचा, भुजाएँ भरी और विशाल, रंग गोरा, नेत्र कमलके समान सुन्दर और अरुणवर्ण, नासिका सुघड़, मुख मनोहर, स्वरूप सौम्य, कंधे ऊँचे और मुसकानसे युक्त दन्तपंक्ति सुन्दर थी ॥ १५ ॥ उनकी छाती चौड़ी, कमरका पिछला भाग स्थूल और उदर पीपलके पत्तेके समान सुडौल तथा बल पड़े हुए होनेसे और भी सुन्दर जान पड़ता था। नाभि भँवरके समान गम्भीर थी, शरीर तेजस्वी था, जङ्घाएँ सुवर्णके समान देदीप्यमान थीं तथा पैरोंके पंजे उभरे हुए थे ॥ १६ ॥ उनके बाल बारीक, घुँघराले, काले और चिकने थे; गरदन शङ्खके समान उतार, चढ़ाववाली तथा रेखाओंसे युक्त थी और वे उत्तम बहुमूल्य धोती पहने और वैसी ही चादर ओढ़े थे ॥ १७ ॥ दीक्षाके नियमानुसार उन्होंने समस्त आभूषण उतार दिये थे; इसीसे उनके शरीरके अङ्ग-प्रत्यङ्गकी शोभा अपने स्वाभाविक रूपमें स्पष्ट झलक रही थी। वे शरीरपर कृष्ण- मृगका चर्म और हाथोंमें कुशा धारण किये हुए थे। इससे उनके शरीरकी कान्ति और भी बढ़ गयी थी। वे अपने सारे नित्यकृत्य यथाविधि सम्पन्न कर चुके थे ॥ १८ ॥ राजा पृथुने मानो सारी सभाको हर्षसे सराबोर करते हुए अपने शीतल एवं स्नेहपूर्ण नेत्रोंसे चारों ओर देखा और फिर अपना भाषण प्रारम्भ किया ॥ १९ ॥ उनका भाषण अत्यन्त सुन्दर, विचित्र पदोंसे युक्त, स्पष्ट, मधुर, गम्भीर एवं निश्शंक था। मानो उस समय वे सबका उपकार करनेके लिये अपने अनुभवका ही अनुवाद कर रहे हों ॥ २० ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नमः 💐💐💐💐🙏🙏🙏
जवाब देंहटाएं🌹💟🥀जय श्री हरि: !!🙏
जवाब देंहटाएंॐ नमो भगवते वासुदेवाय
श्रीकृष्ण गोविंद हरे मुरारे
हे नाथ नारायण वासुदेव: !!