॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)
राजा वेन की कथा
मैत्रेय उवाच –
इत्थं विपर्ययमतिः पापीयानुत्पथं गतः ।
अनुनीयमानस्तद्याच्ञां न चक्रे भ्रष्टमङ्गलः ॥ २९ ॥
इति तेऽसत्कृतास्तेन द्विजाः पण्डितमानिना ।
भग्नायां भव्ययाच्ञायां तस्मै विदुर चुक्रुधुः ॥ ३० ॥
हन्यतां हन्यतामेष पापः प्रकृतिदारुणः ।
जीवन् जगदसावाशु कुरुते भस्मसाद् ध्रुवम् ॥ ३१ ॥
नायमर्हत्यसद्वृत्तो नरदेववरासनम् ।
योऽधियज्ञपतिं विष्णुं विनिन्दत्यनपत्रपः ॥ ३२ ॥
को वैनं परिचक्षीत वेनमेकमृतेऽशुभम् ।
प्राप्त ईदृशमैश्वर्यं यदनुग्रहभाजनः ॥ ३३ ॥
इत्थं व्यवसिता हन्तुं हृषयो रूढमन्यवः ।
निजघ्नुर्हुङ्कृतैर्वेनं हतमच्युतनिन्दया ॥ ३४ ॥
ऋषिभिः स्वाश्रमपदं गते पुत्रकलेवरम् ।
सुनीथा पालयामास विद्यायोगेन शोचती ॥ ३५ ॥
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—इस प्रकार विपरीत बुद्धि होनेके कारण वह(राजा वेन) अत्यन्त पापी और कुमार्गगामी हो गया था। उसका पुण्य क्षीण हो चुका था, इसलिये मुनियोंके बहुत विनयपूर्वक प्रार्थना करनेपर भी उसने उनकी बातपर ध्यान न दिया ॥ २९ ॥ कल्याणरूप विदुरजी ! अपनेको बड़ा बुद्धिमान् समझनेवाले वेन ने जब उन मुनियों का इस प्रकार अपमान किया, तब अपनी माँगको व्यर्थ हुई देख वे उसपर अत्यन्त कुपित हो गये ॥ ३० ॥ ‘मार डालो ! इस स्वभावसे ही दुष्ट पापीको मार डालो ! यह यदि जीता रह गया तो कुछ ही दिनोंमें संसारको अवश्य भस्म कर डालेगा ॥ ३१ ॥ यह दुराचारी किसी प्रकार राजसिंहासन के योग्य नहीं है, क्योंकि यह निर्लज्ज साक्षात् यज्ञपति श्रीविष्णुभगवान् की निन्दा करता है ॥ ३२ ॥ अहो ! जिनकी कृपासे इसे ऐसा ऐश्वर्य मिला, उन श्रीहरिकी निन्दा अभागे वेनको छोडक़र और कौन कर सकता है’ ? ॥ ३३ ॥ इस प्रकार अपने छिपे हुए क्रोधको प्रकट कर उन्होंने उसे मारनेका निश्चय कर लिया। वह तो भगवान्की निन्दा करनेके कारण पहले ही मर चुका था, इसलिये केवल हुंकारों से ही उन्होंने उसका काम तमाम कर दिया ॥ ३४ ॥ जब मुनिगण अपने-अपने आश्रमोंको चले गये, तब इधर वेनकी शोकाकुला माता सुनीथा मन्त्रादि के बलसे तथा अन्य युक्तियोंसे अपने पुत्र के शव की रक्षा करने लगी ॥ ३५ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
🌹💟🥀जय श्रीहरि: !! 🙏
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श्रीकृष्ण गोविंद हरे मुरारे
हे नाथ नारायण वासुदेव: !!