मंगलवार, 14 अक्टूबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - चौदहवां अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

राजा वेन की कथा

तस्मिन् तुष्टे किमप्राप्यं जगतां ईश्वरेश्वरे ।
लोकाः सपाला ह्येतस्मै हरन्ति बलिमादृताः ॥ २० ॥
तं सर्वलोकामरयज्ञसङ्‌ग्रहं
     त्रयीमयं द्रव्यमयं तपोमयम् ।
यज्ञैर्विचित्रैर्यजतो भवाय ते
     राजन् स्वदेशान् अनुरोद्धुमर्हसि ॥ २१ ॥
यज्ञेन युष्मद्विषये द्विजातिभिः
     वितायमानेन सुराः कला हरेः ।
स्विष्टाः सुतुष्टाः प्रदिशन्ति वाञ्छितं
     तद्धेलनं नार्हसि वीर चेष्टितुम् ॥ २२ ॥

वेन उवाच -
बालिशा बत यूयं वा अधर्मे धर्ममानिनः ।
ये वृत्तिदं पतिं हित्वा जारं पतिमुपासते ॥ २३ ॥
अवजानन्त्यमी मूढा नृपरूपिणमीश्वरम् ।
नानुविन्दन्ति ते भद्रं इह लोके परत्र च ॥ २४ ॥
को यज्ञपुरुषो नाम यत्र वो भक्तिरीदृशी ।
भर्तृस्नेहविदूराणां यथा जारे कुयोषिताम् ॥ २५ ॥
विष्णुर्विरिञ्चो गिरिश इन्द्रो वायुर्यमो रविः ।
पर्जन्यो धनदः सोमः क्षितिरग्निरपाम्पतिः ॥ २६ ॥
एते चान्ये च विबुधाः प्रभवो वरशापयोः ।
देहे भवन्ति नृपतेः सर्वदेवमयो नृपः ॥ २७ ॥
तस्मान्मां कर्मभिर्विप्रा यजध्वं गतमत्सराः ।
बलिं च मह्यं हरत मत्तोऽन्यः कोऽग्रभुक् पुमान् ॥ २८ ॥

(मुनि राजा वें से कह रहे हैं) भगवान्‌ ब्रह्मादि जगदीश्वरोंके भी ईश्वर हैं, उनके प्रसन्न होनेपर कोई भी वस्तु दुर्लभ नहीं रह जाती। तभी तो इन्द्रादि लोकपालोंके सहित समस्त लोक उन्हें बड़े आदरसे पूजोपहार समर्पण करते हैं ॥ २० ॥ राजन् ! भगवान्‌ श्रीहरि समस्त लोक, लोकपाल और यज्ञोंके नियन्ता हैं; वे वेदत्रयीरूप, द्रव्यरूप और तप:स्वरूप हैं। इसलिये आपके जो देशवासी आपकी उन्नतिके लिये अनेक प्रकारके यज्ञोंसे भगवान्‌का यजन करते हैं, आपको उनके अनुकूल ही रहना चाहिये ॥ २१ ॥ जब आपके राज्यमें ब्राह्मणलोग यज्ञोंका अनुष्ठान करेंगे, तब उनकी पूजासे प्रसन्न होकर भगवान्‌के अंशस्वरूप देवता आपको मनचाहा फल देंगे। अत: वीरवर ! आपको यज्ञादि धर्मानुष्ठान बंद करके देवताओंका तिरस्कार नहीं करना चाहिये ॥ २२ ॥
वेनने कहा—तुमलोग बड़े मूर्ख हो ! खेद है, तुमने अधर्ममें ही धर्मबुद्धि कर रखी है। तभी तो तुम जीविका देनेवाले मुझ साक्षात् पति को छोडक़र किसी दूसरे जारपति की उपासना करते हो ॥ २३ ॥ जो लोग मूर्खतावश राजारूप परमेश्वरका अनादर करते हैं, उन्हें न तो इस लोकमें सुख मिलता है और न परलोकमें ही ॥ २४ ॥ अरे ! जिसमें तुमलोगोंकी इतनी भक्ति है, वह यज्ञपुरुष है कौन ? यह तो ऐसी ही बात हुई जैसे कुलटा स्त्रियाँ अपने विवाहित पतिसे प्रेम न करके किसी परपुरुषमें आसक्त हो जायँ ॥ २५ ॥ विष्णु, ब्रह्मा, महादेव, इन्द्र, वायु, यम, सूर्य, मेघ, कुबेर, चन्द्रमा, पृथ्वी, अग्रि और वरुण तथा इनके अतिरिक्त जो दूसरे वर और शाप देनेमें समर्थ देवता हैं, वे सब-के-सब राजाके शरीरमें रहते हैं; इसलिये राजा सर्वदेवमय है और देवता उसके अंशमात्र हैं ॥ २६-२७ ॥ इसलिये ब्राह्मणो ! तुम मत्सरता छोडक़र अपने सभी कर्मोंद्वारा एक मेरा ही पूजन करो और मुझीको बलि समर्पण करो। भला मेरे सिवा और कौन अग्रपूजाका अधिकारी हो सकता है ॥ २८ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


1 टिप्पणी:

  1. 🪷💐🪷जय श्रीहरि: !! 🙏
    हे नाथ नारायण वासुदेव: !!
    ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

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