॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध – तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)
राजा पृथु की तपस्या और परलोकगमन
मैत्रेय उवाच -
स्तुवतीष्वमरस्त्रीषु पतिलोकं गता वधूः ।
यं वा आत्मविदां धुर्यो वैन्यः प्रापाच्युताश्रयः ॥ २९ ॥
इत्थम्भूतानुभावोऽसौ पृथुः स भगवत्तमः ।
कीर्तितं तस्य चरितं उद्दामचरितस्य ते ॥ ३० ॥
य इदं सुमहत्पुण्यं श्रद्धयावहितः पठेत् ।
श्रावयेत् श्रुणुयाद्वापि स पृथोः पदवीमियात् ॥ ३१ ॥
ब्राह्मणो ब्रह्मवर्चस्वी राजन्यो जगतीपतिः ।
वैश्यः पठन् विट्पतिः स्यात् शूद्रः सत्तमतामियात् ॥ ३२ ॥
त्रिकृत्व इदमाकर्ण्य नरो नार्यथवाऽऽदृता ।
अप्रजः सुप्रजतमो निर्धनो धनवत्तमः ॥ ३३ ॥
अस्पष्टकीर्तिः सुयशा मूर्खो भवति पण्डितः ।
इदं स्वस्त्ययनं पुंसां अमङ्गल्यनिवारणम् ॥ ३४ ॥
धन्यं यशस्यमायुष्यं स्वर्ग्यं कलिमलापहम् ।
धर्मार्थकाममोक्षाणां सम्यक् सिद्धिमभीप्सुभिः ॥ ३५ ॥
श्रद्धयैतदनुश्राव्यं चतुर्णां कारणं परम् ॥ ३५ ॥
विजयाभिमुखो राजा श्रुत्वैतदभियाति यान् ।
बलिं तस्मै हरन्त्यग्रे राजानः पृथवे यथा ॥ ३६ ॥
मुक्तान्यसङ्गो भगवति अमलां भक्तिमुद्वहन् ।
वैन्यस्य चरितं पुण्यं श्रृणुयात् श्रावयेत्पठेत् ॥ ३७ ॥
वैचित्रवीर्याभिहितं महन्माहात्म्यसूचकम् ।
अस्मिन्कृतमतिमर्त्यं पार्थवीं गतिमाप्नुयात् ॥ ३८ ॥
अनुदिनमिदमादरेण श्रृण्वन्
पृथुचरितं प्रथयन् विमुक्तसङ्गः ।
भगवति भवसिन्धुपोतपादे
स च निपुणां लभते रतिं मनुष्यः ॥ ३९ ॥
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! जिस समय देवाङ्गनाएँ इस प्रकार स्तुति कर रही थीं, भगवान्के जिस परमधामको आत्मज्ञानियोंमें श्रेष्ठ भगवत्प्राण महाराज पृथु गये, महारानी अर्चि भी उसी पतिलोकको गयीं ॥ २९ ॥ परमभागवत पृथुजी ऐसे ही प्रभावशाली थे। उनके चरित बड़े उदार हैं, मैंने तुम्हारे सामने उनका वर्णन किया ॥ ३० ॥ जो पुरुष इस परम पवित्र चरित्रको श्रद्धापूर्वक (निष्कामभावसे) एकाग्रचित्तसे पढ़ता, सुनता अथवा सुनाता है—वह भी महाराज पृथुके पद— भगवान्के परमधामको प्राप्त होता है ॥ ३१ ॥ इसका सकामभावसे पाठ करनेसे ब्राह्मण ब्रह्मतेज प्राप्त करता है, क्षत्रिय पृथ्वीपति हो जाता है, वैश्य व्यापारियोंमें प्रधान हो जाता है और शूद्रमें साधुता आ जाती है ॥ ३२ ॥ स्त्री हो अथवा पुरुष—जो कोई इसे आदरपूर्वक तीन बार सुनता है, वह सन्तानहीन हो तो पुत्रवान्, धनहीन हो तो महाधनी, कीर्तिहीन हो तो यशस्वी और मूर्ख हो तो पण्डित हो जाता है। यह चरित मनुष्यमात्रका कल्याण करनेवाला और अमङ्गलको दूर करनेवाला है ॥ ३३-३४ ॥ यह धन, यश और आयुकी वृद्धि करनेवाला, स्वर्गकी प्राप्ति करानेवाला और कलियुगके दोषोंका नाश करनेवाला है। यह धर्मादि चतुर्वर्गकी प्राप्तिमें भी बड़ा सहायक है; इसलिये जो लोग धर्म, अर्थ, काम और मोक्षको भलीभाँति सिद्ध करना चाहते हों, उन्हें इसका श्रद्धापूर्वक श्रवण करना चाहिये ॥ ३५ ॥ जो राजा विजयके लिये प्रस्थान करते समय इसे सुनकर जाता है, उसके आगे आ-आकर राजालोग उसी प्रकार भेंटें रखते हैं जैसे पृथुके सामने रखते थे ॥ ३६ ॥ मनुष्यको चाहिये कि अन्य सब प्रकारकी आसक्ति छोडक़र भगवान्में विशुद्ध निष्काम भक्ति-भाव रखते हुए महाराज पृथुके इस निर्मल चरितको सुने, सुनावे और पढ़े ॥ ३७ ॥ विदुरजी ! मैंने भगवान्के माहात्म्यको प्रकट करनेवाला यह पवित्र चरित्र तुम्हें सुना दिया। इसमें प्रेम करनेवाला पुरुष महाराज पृथुकी-सी गति पाता है ॥ ३८ ॥ जो पुरुष इस पृथु-चरितका प्रतिदिन आदरपूर्वक निष्कामभावसे श्रवण और कीर्तन करता है; उसका जिनके चरण संसार- सागरको पार करनेके लिये नौकाके समान हैं, उन श्रीहरिमें सुदृढ़ अनुराग हो जाता है ॥ ३९ ॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे त्रयोविंशोऽध्याय:
शेष आगामी पोस्ट में --
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