॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध – तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
राजा पृथु की तपस्या और परलोकगमन
अर्चिर्नाम महाराज्ञी तत्पत्न्यरनुगता वनम् ।
सुकुमार्यतदर्हा च यत्पद्भ्यां स्पर्शनं भुवः ॥ १९ ॥
अतीव भर्तुर्व्रतधर्मनिष्ठया
शुश्रूषया चारषदेहयात्रया ।
नाविन्दतार्तिं परिकर्शितापि सा
प्रेयस्करस्पर्शनमाननिर्वृतिः ॥ २० ॥
देहं विपन्नाखिलचेतनादिकं
पत्युः पृथिव्या दयितस्य चात्मनः ।
आलक्ष्य किञ्चिच्च विलप्य सा सती
चितामथारोपयदद्रिसानुनि ॥ २१ ॥
विधाय कृत्यं ह्रदिनीजलाप्लुता
दत्त्वोदकं भर्तुरुदारकर्मणः ।
नत्वा दिविस्थांस्त्रिदशांस्त्रिः परीत्य
विवेश वह्निं ध्यायती भर्तृपादौ ॥ २२ ॥
विलोक्यानुगतां साध्वीं पृथुं वीरवरं पतिम् ।
तुष्टुवुर्वरदा देवैः देवपत्न्यःर सहस्रशः ॥ २३ ॥
कुर्वत्यः कुसुमासारं तस्मिन् मन्दरसानुनि ।
नदत्स्वमरतूर्येषु गृणन्ति स्म परस्परम् ॥ २४ ॥
देव्य ऊचुः -
अहो इयं वधूर्धन्या या चैवं भूभुजां पतिम् ।
सर्वात्मना पतिं भेजे यज्ञेशं श्रीर्वधूरिव ॥ २५ ॥
सैषा नूनं व्रजत्यूर्ध्वमनु वैन्यं पतिं सती ।
पश्यतास्मानतीत्यार्चिः दुर्विभाव्येन कर्मणा ॥ २६ ॥
तेषां दुरापं किं त्वन्यन् मर्त्यानां भगवत्पदम् ।
भुवि लोलायुषो ये वै नैष्कर्म्यं साधयन्त्युत ॥ २७ ॥
स वञ्चितो बतात्मध्रुक् कृच्छ्रेण महता भुवि ।
लब्ध्वापवर्ग्यं मानुष्यं विषयेषु विषज्जते ॥ २८ ॥
महाराज पृथुकी पत्नी महारानी अर्चि भी उनके साथ वनको गयी थीं। वे बड़ी सुकुमारी थीं, पैरोंसे भूमिका स्पर्श करनेयोग्य भी नहीं थीं ॥ १९ ॥ फिर भी उन्होंने अपने स्वामीके व्रत और नियमादिका पालन करते हुए उनकी खूब सेवा की और मुनिवृत्तिके अनुसार कन्द-मूल आदिसे निर्वाह किया। इससे यद्यपि वे बहुत दुर्बल हो गयी थीं, तो भी प्रियतमके करस्पर्शसे सम्मानित होकर उसीमें आनन्द माननेके कारण उन्हें किसी प्रकार कष्ट नहीं होता था ॥ २० ॥ अब पृथ्वीके स्वामी और अपने प्रियतम महाराज पृथुकी देहको जीवनके चेतना आदि सभी धर्मोंसे रहित देख उस सतीने कुछ देर विलाप किया। फिर पर्वतके ऊपर चिता बनाकर उसे उस चितापर रख दिया ॥ २१ ॥ इसके बाद उस समयके सारे कृत्य कर नदीके जलमें स्नान किया। अपने परम पराक्रमी पतिको जलाञ्जलि दे आकाशस्थित देवताओंकी वन्दना की तथा तीन बार चिताकी परिक्रमा कर पतिदेवके चरणोंका ध्यान करती हुई अग्रिमें प्रवेश कर गयीं ॥ २२ ॥ परमसाध्वी अर्चिको इस प्रकार अपने पति वीरवर पृथुका अनुगमन करते देख सहस्रों वरदायिनी देवियोंने अपने-अपने पतियोंके साथ उनकी स्तुति की ॥ २३ ॥ वहाँ देवताओंके बाजे बजने लगे। उस समय उस मन्दराचलके शिखरपर वे देवाङ्गनाएँ पुष्पोंकी वर्षा करती हुई आपसमें इस प्रकार कहने लगीं ॥ २४ ॥
देवियोंने कहा—अहो ! यह स्त्री धन्य है ! इसने अपने पति राजराजेश्वर पृथुकी मन-वाणी- शरीरसे ठीक उसी प्रकार सेवा की है, जैसे श्रीलक्ष्मीजी यज्ञेश्वर भगवान् विष्णुकी करती हैं ॥ २५ ॥ अवश्य ही अपने अचिन्त्य कर्मके प्रभावसे यह सती हमें भी लाँघकर अपने पतिके साथ उच्चतर लोकोंको जा रही है ॥ २६ ॥ इस लोकमें कुछ ही दिनोंका जीवन होनेपर भी जो लोग भगवान्के परमपदकी प्राप्ति करानेवाला आत्मज्ञान प्राप्त कर लेते हैं, उनके लिये संसारमें कौन पदार्थ दुर्लभ है ॥ २७ ॥ अत: जो पुरुष बड़ी कठिनतासे भूलोकमें मोक्षका साधनस्वरूप मनुष्य-शरीर पाकर भी विषयोंमें आसक्त रहता है, वह निश्चय ही आत्मघाती है; हाय ! हाय ! वह ठगा गया ! ॥ २८ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नमः 💐💐💐💐🙏🙏🙏🙏
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