बुधवार, 12 नवंबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - पच्चीसवां अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – पचीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

पुरञ्जनोपाख्यानका प्रारम्भ

का त्वं कञ्जपलाशाक्षि कस्यासीह कुतः सति ।
इमामुप पुरीं भीरु किं चिकीर्षसि शंस मे ॥ २६ ॥
क एतेऽनुपथा ये ते एकादश महाभटाः ।
एता वा ललनाः सुभ्रु कोऽयं तेऽहिः पुरःसरः ॥ २७ ॥
त्वं ह्रीर्भवान्यस्यथ वाग्रमा पतिं
     विचिन्वती किं मुनिवद्रहो वने ।
त्वदङ्‌घ्रिकामाप्तसमस्तकामं
     क्व पद्मकोशः पतितः कराग्रात् ॥ २८ ॥
नासां वरोर्वन्यतमा भुविस्पृक्
     पुरीं इमां वीरवरेण साकम् ।
अर्हस्यलङ्‌कर्तुमदभ्रकर्मणा
     लोकं परं श्रीरिव यज्ञपुंसा ॥ २९ ॥
यदेष मापाङ्‌गविखण्डितेन्द्रियं
     सव्रीडभावस्मितविभ्रमद्भ्रुरवा ।
त्वयोपसृष्टो भगवान् मनोभवः
     प्रबाधतेऽथानुगृहाण शोभने ॥ ३० ॥
त्वदाननं सुभ्रु सुतारलोचनं
     व्यालम्बिनीलालकवृन्दसंवृतम् ।
उन्नीय मे दर्शय वल्गुवाचकं
     यद्व्रीडया नाभिमुखं शुचिस्मिते ॥ ३१ ॥

(राजा पुरञ्जन उस सुन्दरी से कहते हैं) ‘कमलदललोचने’ ! मुझे बताओ तुम कौन हो, किसकी कन्या हो ? साध्वी ! इस समय आ कहाँ से रही हो, भीरु ! इस पुरीके समीप तुम क्या करना चाहती हो ? ॥ २६ ॥ सुभ्रु ! तुम्हारे साथ इस ग्यारहवें महान् शूरवीरसे सञ्चालित ये दस सेवक कौन हैं और ये सहेलियाँ तथा तुम्हारे आगे- आगे चलनेवाला यह सर्प कौन है ? ॥ २७ ॥ सुन्दरि ! तुम साक्षात् लज्जादेवी हो अथवा उमा, रमा और ब्रह्माणीमेंसे कोई हो ? यहाँ वनमें मुनियोंकी तरह एकान्तवास करके क्या अपने पतिदेवको खोज रही हो ? तुम्हारे प्राणनाथ तो ‘तुम उनके चरणोंकी कामना करती हो’, इतनेसे ही पूर्णकाम हो जायँगे। अच्छा, यदि तुम साक्षात् कमलादेवी हो, तो तुम्हारे हाथका क्रीड़ाकमल कहाँ गिर गया ॥ २८ ॥ सुभगे ! तुम इनमेंसे तो कोई हो नहीं; क्योंकि तुम्हारे चरण पृथ्वीका स्पर्श कर रहे हैं। अच्छा, यदि तुम कोई मानवी ही हो, तो लक्ष्मीजी जिस प्रकार भगवान्‌ विष्णुके साथ वैकुण्ठकी शोभा बढ़ाती हैं, उसी प्रकार तुम मेरे साथ इस श्रेष्ठ पुरीको अलंकृत करो। देखो, मैं बड़ा ही वीर और पराक्रमी हूँ ॥ २९ ॥ परंतु आज तुम्हारे कटाक्षोंने मेरे मनको बेकाबू कर दिया है। तुम्हारी लजीली और रतिभावसे भरी मुसकानके साथ भौंहोंके संकेत पाकर यह शक्तिशाली कामदेव मुझे पीडि़त कर रहा है। इसलिये सुन्दरि ! अब तुम्हें मुझपर कृपा करनी चाहिये ॥ ३० ॥ शुचिस्मिते ! सुन्दर भौंहें और सुघड़ नेत्रोंसे सुशोभित तुम्हारा मुखारविन्द इन लंबी-लंबी काली अलकावलियोंसे घिरा हुआ है; तुम्हारे मुखसे निकले हुए वाक्य बड़े ही मीठे और मन हरनेवाले हैं, परंतु वह मुख तो लाजके मारे मेरी ओर होता ही नहीं। जरा ऊँचा करके अपने उस सुन्दर मुखड़ेका मुझे दर्शन तो कराओ’ ॥ ३१ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


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