सोमवार, 3 नवंबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - बाईसवां अध्याय..(पोस्ट०८)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

महाराज पृथुको सनकादिका उपदेश

मैत्रेय उवाच –

ते आत्मयोगपतय आदिराजेन पूजिताः ।
शीलं तदीयं शंसन्तः खेऽभूवन् मिषतां नृणाम् ॥ ४८ ॥
वैन्यस्तु धुर्यो महतां संस्थित्याध्यात्मशिक्षया ।
आप्तकामं इवात्मानं मेन आत्मन्यवस्थितः ॥ ४९ ॥
कर्माणि च यथाकालं यथादेशं यथाबलम् ।
यथोचितं यथावित्तं अकरोद्ब्रथह्मसात्कृतम् ॥ ५० ॥
फलं ब्रह्मणि विन्यस्य निर्विषङ्‌गः समाहितः ।
कर्माध्यक्षं च मन्वान आत्मानं प्रकृतेः परम् ॥ ५१ ॥
गृहेषु वर्तमानोऽपि स साम्राज्यश्रियान्वितः ।
नासज्जतेन्द्रियार्थेषु निरहंमतिरर्कवत् ॥ ५२ ॥
एवं अध्यात्मयोगेन कर्माणि अनुसमाचरन् ।
पुत्रान् उत्पादयामास पञ्चार्चिष्यात्मसम्मतान् ॥ ५३ ॥
विजिताश्वं धूम्रकेशं हर्यक्षं द्रविणं वृकम् ।
सर्वेषां लोकपालानां दधारैकः पृथुर्गुणान् ॥ ५४ ॥
गोपीथाय जगत्सृष्टेः काले स्वे स्वेऽच्युतात्मकः ।
मनोवाग् वृत्तिभिः सौम्यैः गुणैः संरञ्जयन् प्रजाः ॥ ५५ ॥
राजेत्यधान् नामधेयं सोमराज इवापरः ।
सूर्यवद्विसृजन्गृह्णन् प्रतपंश्च भुवो वसु ॥ ५६ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! फिर आदिराज पृथुने आत्मज्ञानियों में श्रेष्ठ सनकादि की पूजा की और वे उनके शीलकी प्रशंसा करते हुए सब लोगोंके सामने ही आकाशमार्गसे चले गये ॥ ४८ ॥ महात्माओंमें अग्रगण्य महाराज पृथु उनसे आत्मोपदेश पाकर चित्तकी एकाग्रतासे आत्मामें ही स्थित रहनेके कारण अपनेको कृतकृत्य-सा अनुभव करने लगे ॥ ४९ ॥ वे ब्रह्मार्पण-बुद्धिसे समय, स्थान, शक्ति, न्याय और धनके अनुसार सभी कर्म करते थे ॥ ५० ॥ इस प्रकार एकाग्र चित्तसे समस्त कर्मोंका फल परमात्माको अर्पण करके आत्माको कर्मोंका साक्षी एवं प्रकृतिसे अतीत देखनेके कारण वे सर्वथा निर्लिप्त रहे ॥ ५१ ॥ जिस प्रकार सूर्यदेव सर्वत्र प्रकाश करनेपर भी वस्तुओंके गुण-दोषसे निर्लेप रहते हैं, उसी प्रकार सार्वभौम साम्राज्यलक्ष्मीसे सम्पन्न और गृहस्थाश्रममें रहते हुए भी अहंकारशून्य होनेके कारण वे इन्द्रियोंके विषयोंमें आसक्त नहीं हुए ॥ ५२ ॥
इस प्रकार आत्मनिष्ठामें स्थित होकर सभी कर्तव्यकर्मोंका यथोचित रीतिसे अनुष्ठान करते हुए उन्होंने अपनी भार्या अर्चिके गर्भसे अपने अनुरूप पाँच पुत्र उत्पन्न किये ॥ ५३ ॥ उनके नाम विजिताश्व, धूम्रकेश, हर्यक्ष, द्रविण और वृक थे। महाराज पृथु भगवान्‌के अंश थे। वे समय- समयपर, जब-जब आवश्यक होता था, जगत् के  प्राणियोंकी रक्षाके लिये अकेले ही समस्त लोकपालोंके गुण धारण कर लिया करते थे। अपने उदार मन, प्रिय और हितकर वचन, मनोहर मूर्ति और सौम्य गुणोंके द्वारा प्रजाका रञ्जन करते रहनेसे दूसरे चन्द्रमाके समान उनका ‘राजा’ यह नाम सार्थक हुआ। सूर्य जिस प्रकार गरमीमें पृथ्वीका जल खींचकर वर्षाकालमें उसे पुन: पृथ्वीपर बरसा देता है तथा अपनी किरणोंसे सबको ताप पहुँचाता है, उसी प्रकार वे कररूप से प्रजाका धन लेकर उसे दुष्कालादि के समय मुक्तहस्त से प्रजा के हित में लगा देते थे तथा सबपर अपना प्रभाव जमाये रखते थे ॥ ५४—५६ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


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