॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)
महाराज पृथुको सनकादिका उपदेश
राजोवाच -
कृतो मेऽनुग्रहः पूर्वं हरिणाऽऽर्तानुकम्पिना ।
तमापादयितुं ब्रह्मन् भगवन् यूयमागताः ॥ ४२ ॥
निष्पादितश्च कार्त्स्न्येन भगवद्भिः घृणालुभिः ।
साधूच्छिष्टं हि मे सर्वं आत्मना सह किं ददे ॥ ४३ ॥
प्राणा दाराः सुता ब्रह्मन् गुहाश्च सपरिच्छदाः ।
राज्यं बलं मही कोश इति सर्वं निवेदितम् ॥ ४४ ॥
सैनापत्यं च राज्यं च दण्डनेतृत्वमेव च ।
सर्व लोकाधिपत्यं च वेदशास्त्रविदर्हति ॥ ४५ ॥
स्वमेव ब्राह्मणो भुङ्क्ते स्वं वस्ते स्वं ददाति च ।
तस्यैवानुग्रहेणान्नं भुञ्जते क्षत्रियादयः ॥ ४६ ॥
यैरीदृशी भगवतो गतिरात्मवादे
एकान्ततो निगमिभिः प्रतिपादिता नः ।
तुष्यन्त्वदभ्रकरुणाः स्वकृतेन नित्यं
को नाम तत्प्रतिकरोति विनोदपात्रम् ॥ ४७ ॥
राजा पृथुने कहा—भगवन् ! दीनदयाल श्रीहरिने मुझपर पहले कृपा की थी, उसीको पूर्ण करनेके लिये आपलोग पधारे हैं ॥ ४२ ॥ आपलोग बड़े ही दयालु हैं। जिस कार्यके लिये आपलोग पधारे थे, उसे आपलोगोंने अच्छी तरह सम्पन्न कर दिया। अब, इसके बदलेमें मैं आपलोगोंको क्या दूँ ? मेरे पास तो शरीर और इसके साथ जो कुछ है, वह सब महापुरुषोंका ही प्रसाद है ॥ ४३ ॥ ब्रह्मन् ! प्राण, स्त्री, पुत्र सब प्रकारकी सामग्रियोंसे भरा हुआ भवन, राज्य, सेना, पृथ्वी और कोश—यह सब कुछ आप ही लोगोंका है, अत: आपके ही श्रीचरणोंमें अर्पित है ॥ ४४ ॥ वास्तवमें तो सेनापतित्व, राज्य, दण्डविधान और सम्पूर्ण लोकोंके शासनका अधिकार तो वेद-शास्त्रोंके ज्ञाता ब्राह्मणोंको ही है ॥ ४५ ॥ ब्राह्मण अपना ही खाता है, अपना ही पहनता है और अपनी ही वस्तु दान देता है। दूसरे—क्षत्रिय आदि तो उसीकी कृपासे अन्न खानेको पाते हैं ॥ ४६ ॥ आपलोग वेदके पारगामी हैं, आपने अध्यात्मतत्त्वका विचार करके हमें निश्चितरूपसे समझा दिया है कि भगवान् के प्रति इस प्रकारकी अभेद-भक्त िही उनकी उपलब्धिका प्रधान साधन है। आप लोग परम कृपालु हैं। अत: अपने इस दीनोद्धाररूप कर्मसे ही सर्वदा सन्तुष्ट रहें। आपके इस उपकारका बदला कोई क्या दे सकता है ? उसके लिये प्रयत्न करना भी अपनी हँसी कराना ही है ॥ ४७ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
🌹💟🥀जय श्री हरि: !!🙏
जवाब देंहटाएंश्रीकृष्ण गोविंद हरे मुरारे
हे नाथ नारायण वासुदेव: !!