॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)
महाराज पृथुको सनकादिका उपदेश
यस्मिन्निदं सदसदात्मतया विभाति
माया विवेकविधुति स्रजि वाहिबुद्धिः ।
तं नित्यमुक्तपरिशुद्धविशुद्धतत्त्वं
प्रत्यूढकर्मकलिलप्रकृतिं प्रपद्ये ॥ ३८ ॥
यत्पादपङ्कजपलाशविलासभक्त्या
कर्माशयं ग्रथितमुद्ग्रतथयन्ति सन्तः ।
तद्वन्न रिक्तमतयो यतयोऽपि रुद्ध
स्रोतोगणास्तमरणं भज वासुदेवम् ॥ ३९ ॥
कृच्छ्रो महानिह भवार्णवमप्लवेशां
षड्वर्गनक्रमसुखेन तितीर्षन्ति ।
तत्त्वं हरेर्भगवतो भजनीयमङ्घ्रिं
कृत्वोडुपं व्यसनमुत्तर दुस्तरार्णम् ॥ ४० ॥
मैत्रेय उवाच -
स एवं ब्रह्मपुत्रेण कुमारेणात्ममेधसा ।
दर्शितात्मगतिः सम्यक् प्रशस्योवाच तं नृपः ॥ ४१ ॥
जिस प्रकार मालाका ज्ञान हो जानेपर उसमें सर्पबुद्धि नहीं रहती, उसी प्रकार विवेक होनेपर जिसका कहीं पता नहीं लगता, ऐसा यह मायामय प्रपञ्च जिसमें कार्य-कारणरूपसे प्रतीत हो रहा है और जो स्वयं कर्मफल-कलुषित प्रकृतिसे परे है, उस नित्यमुक्त, निर्मल और ज्ञानस्वरूप परमात्माको मैं प्राप्त हो रहा हूँ ॥ ३८ ॥ संत-महात्मा जिनके चरणकमलोंके अङ्गुलिदलकी छिटकती हुई छटाका स्मरण करके अहंकार-रूप हृदयग्रन्थिको, जो कर्मोंसे गठित है, इस प्रकार छिन्न-भिन्न कर डालते हैं कि समस्त इन्द्रियोंका प्रत्याहार करके अपने अन्त:करणको निर्विषय करनेवाले संन्यासी भी वैसा नहीं कर पाते। तुम उन सर्वाश्रय भगवान् वासुदेवका भजन करो ॥ ३९ ॥ जो लोग मन और इन्द्रियरूप मगरोंसे भरे हुए इस संसारसागरको योगादि दुष्कर साधनोंसे पार करना चाहते हैं, उनका उस पार पहुँचना कठिन ही है; क्योंकि उन्हें कर्णधाररूप श्रीहरिका आश्रय नहीं है। अत: तुम तो भगवान्के आराधनीय चरणकमलोंको नौका बनाकर अनायास ही इस दुस्तर समुद्रको पार कर लो ॥ ४० ॥
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! ब्रह्माजीके पुत्र आत्मज्ञानी सनत्कुमारजीसे इस प्रकार आत्मतत्त्वका उपदेश पाकर महाराज पृथुने उनकी बहुत प्रशंसा करते हुए कहा ॥ ४१ ॥
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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नमः 💐💐💐💐🙏🙏🙏
जवाब देंहटाएं💐💟🥀जय श्रीकृष्ण🙏
जवाब देंहटाएंगोविंद दामोदर माधवेति
हे नाथ नारायण वासुदेव: !!